Tenali Raman’s Gift to the King Krishnadeva Raya in Hindi
विजय नगर के महाराज कृष्णदेव राय हर वर्ष अपना जन्म-दिन बडी धूमधाम से मनाते थे। उनके जन्म-दिन के अवसर पर सारे दिन महल में यज्ञ चलता, भंडारा चलता, शाम को सात पवित्र नदियों के जल से महाराज का अभिषेक किया जाता। दरबारी और राज्य के प्रमुख नागरिक उनको भेंट देते, फिर रात भर नृत्य-संगीत, गायन-अभिनय के रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत होते।
दरबारियों में हर वर्ष होड-सी लगी रहती थी कि कौन सबसे बहुमूल्य और आकर्षक भेंट महाराज को दे। सभी दरबारी जी-जान से कोषिष करते थे कि उनका उपहार महाराज को सबसे अधिक पसन्द आये, किन्तु महाराज की वाह-वाह अक्सर तेनालीराम ही लुटता था।
इस बार मंत्री और सेनापति ने मिलकर एक गुप्त योजना बनाई। इस बार वे किसी भी हालत में तेनालीराम को महाराज की वाह-वाह लूटने देना नहीं चाहते थे। पुरानी परंपरा के अनुसार जिस सिंहासन पर बैठे कृष्णदेव राय जनता और दरबारियों से भेंट स्वीकार करते थे, उस सिंहासन के दाई और मंत्री बैठता था और बाई ओर सेनापति ।
महाराज भेट स्वीकार करके उन्हें दे जाते थे। इस बार उन्होंने यह योजना बनाई कि सेनापति पैर के नीचे एक मेंढक दबाकर बैठें। जैसे ही तेनालीराम राजा को भेंट देने आये सबकी नजर बचाकर वह मेंढक के उपर से पैर हटा लें। मंत्री सोचता था पैर हटने के साथ ही मेंढक सामने उछलेगा, सामने होगा तेनालीराम बस उसका संतुलन बिगढ जायेगा और महाराज को भेंट देने से पहले ही वह उसका उपहार फर्श पर गिर पडेगा ।
सो न रहेगा उपहार और न मिलेगी वाह-वाह। इस योजना को सोच-सोच कर मंत्री और सेनापति दोनों ही बडे प्रसन्न थे । जन्मदिवस समारोह से एक दिन पहले मंत्री ने सेवक को भेजकर गांव के तालाब से एक मेंढक मंगवाया, मंत्री ने उसे चुपके से उसे सेनापति के पास भिजवा दिया।
जन्मदिवस के दिन वे दोनों ही तेनालीराम की गतिविधीयों पर आखें गढाये रहे। फिर वह समय भी आ गया जब महाराज कृष्णदेव राय ने भेंट स्वीकार करनी शुरू की। महाराज भेट स्वीकार कर कभी मंत्री को पकडाते कभी सेनापति को । मंत्री कभी उठता कभी बैठता सेनापति परेषान था, वह उठ नहीं सकता था, उसने पैर के नीचे मेंढक जो दबा रखा था। महाराज ने पुछा तो वह बोला अन्नदाता सवेरे नहाते समय टखने में मोेच आ गई थी, सो उठा नहीं जा रहा हें।
यह सुनकर महाराज चुप हो गये। धीरे-धीरे तेनालीराम की बारी आयी, सीधे हाथ में केसरिया रंग के कपडे की एक छोटी सी पोटली लिये वह आगे बडा, अभी वह महाराज कृष्णदेव राय के सामने पहूंचा ही था कि सेनापति ने मेंढक के उपर से पैर उठा लिया।
इतनी देर से बैचेन मेंढक पैर उठते ही जोर से फुदका, मेंढक तेनालीराम के सीधे कंधे से इतनेी जोर टकराया कि तेनालीराम संभलता-संभलता भी महाराज कृष्णदेव राय की गोद में जा गिरा। इस अप्रत्याषित घटना से सभी चोंक गये।
चूंकि मंत्री और सेनापति को यह पहले से ही पता था, वे मस्कुराने लगें। महाराज ने गुस्से में भरकर तेनालीराम को उठाया और झझलाकर बोले तेनालीराम यह क्या मूर्खता है। तुम हमारे सामने सही ढंग से खडें भी नही हो सकते क्या ?
क्षमा करें महाराज तेनालीराम हाथ जोडने की कोशिश करता हुआ बोला मैंने जीवन भर आपका नमक खाया है, इस बार बहुत सोचा कि आपको क्या उपहार दूं किन्तु कोई उपहार मुझे जंचा नहीं तो सोचा कि इस बार मैं स्वयं को ही भेंट स्वरूप आपको दे डालूं।
तेनालीराम की बात सुनकर सम्राट का को्रध हवा हो गया। मुस्कुरा कर बोले तुम्हारा जवाब नहीं तेनालीराम। अचानक उनकी दृष्टि तेनालीराम के बायें हाथ की ओर गई, उसकी मुठ्ठी में कुछ बन्द था, महाराज ने पुछा क्या हैं तुम्हारी मुठ्ठी में ? तेनालीराम ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया यह सेनापति का सेवक है। इसी ने तो मुझे उपहार बनाकर आपके चरणों में भेेट किया है अन्नदाता कहकर उसने मुठ्ठी खोल दी, उसमें बन्द मेंढक उछलकर सीधे सेनापति पर जाकर गिरा। मेंढक के गिरते ही सेनापति अपने आसन से उछलकर नीचे जा गिर पडा। यह देखकर कृष्णदेव राय व अन्य सभी दरबारी हंसने लगे।
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