Raja Ki Bhains Ne Ghoda Jana: Lok-Katha (Goa/Konkani)

राजा की भैंस ने घोड़ा जना… : गोवा/कोंकणी लोक-कथा
एक था राजा। उसके सात कुँवर थे। तो राजा क्या करता है? अपने इन कुँवरों की अच्छी तरह परवरिश करता है। उनको अच्छी शिक्षा देता है और जब वे शादी के योग्य हो जाते हैं तो पड़ोस के राजाओं की सुयोग्य कन्याओं से उनकी शादी करवाता है।

तो सब खुशी-खुशी चल रहा है। राजा और उसके कुँवर सुख-शांति से जीवन बिता रहे हैं। तो एक दिन होता क्या है? राजा के सातवें कुँवर के ससुर अपनी बेटी को मायके लेने आते हैं और इस राजा से कहते हैं कि वे अपनी बेटी को चार दिन के लिए मायके लेकर जाना चाहते हैं। राजा बोलता है, “ठीक है, लेकर जाओ अपनी बेटी को।”

तो वह राजा अपनी बेटी को, यानी सातवें कुँवर की पत्नी को मायके लेकर जाता है। लेकर गए तब होता है क्या? चार दिन के आठ दिन होते हैं, आठ के पंद्रह और पंद्रह का महीना होता है, कन्या के पिता उसे वापस ससुराल नहीं पहुँचाते। तो यह राजा अपने सातवें कुँवर से कहता है—

“बेटा, तुम्हारा ससुर तो तुम्हारी पत्नी को घर नहीं पहुँचा रहा है। इसलिए अब तुम ही ससुराल जाकर पत्नी को लेकर आ जाना।”

तो सातवाँ कुँवर करता क्या है? अपने पिता की आज्ञानुसार दूसरे दिन अपनी सब दिनचर्या खत्म करके दोपहर ढलने के बाद घोड़े पर सवार होकर ससुराल जाने के लिए निकलता है। तो अँधेरा छाने के बाद वह ससुराल पहुँचता है।

पहुँचा तो कुँवर सीधा अपना घोड़ा लेकर ससुर की गौशाला में जाता है और वहाँ भैंस की खूँटी के नजदीक एक खूँटी में उसे बाँधता है। इतना करके वह ससुराल में प्रवेश करता है। सास-ससुर को उसे देखकर बहुत ही खुशी होती है। सास उसे पाँव धोने के लिए गरम पानी देती है, पाँव पोंछने के लिए गमछा देती है, बैठने लिए चटाई डालती है। उसको जलपान देती है।

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उसकी बड़ी आव-भगत करती है।

कुछ ही पल में उसके सब साले वहाँ इकट्ठे हो जाते हैं, ‘जीजाजी…जीजाजी’ कहकर उसे मानो सिर पर उठाते हैं। उसकी खुशहाली पूछते हैं। सब औपचारिकता खत्म होने के बाद उसका ससुर उसके आने का कारण पूछता है। तो कुँवर कहता है—“ससुरजी, मैं अपनी पत्नी को घर लेने के लिए आया हूँ। बहुत दिन हो गए उसे यहाँ आए।”

ससुर बोलता है, “बेशक लेकर जाना, हमें कोई ऐतराज नहीं हैं। सच बोलूँ, तो हमें ही उसे इतने दिनों में वहाँ पहुँचा आना चाहिए था। अब तुम आए ही हो, तो उसे सुबह लेकर जाना।”

कुछ पल में रात होती है। उसके लिए खाना परोसा जाता है। कुँवर की सास उसे बड़े इसरार से एक-एक पकवान खिलाती है। कुँवर पेट भर खाना खाकर शांति से सो जाता है।

दूसरे दिन होता क्या है? कुँवर पौ फटने से पहले उठता है और प्रातः विधि के लिए नदी के किनारे जाता है। इधर कुँवर के सात साले हाथ में दुधांड़ी लेकर गौशाला में भैंस का दूध दोहने जाते हैं। तो वहाँ उन्हें कुँवर का घोड़ा दिखता है। तो वे एकदम जोर से चिल्लाने लगते हैं—

“राजा की भैंस ने घोड़ा जना है!…राजा की भैंस ने घोड़ा जना है!…”

प्रातःविधि के लिए नदी पर गया कुँवर जब वापस आता है तो उसे सातों साले, “राजा की भैंस ने घोड़ा जना है…राजा की भैंस ने घोड़ा जना है…” ऐसे चिल्लाते हुए दिखाई देते हैं।

उसे बड़ा आश्चर्य होता है, “अरे वाह! राजा की भैंस ने घोड़ा जना है? कहाँ है वो?”

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कुँवर गौशाला के अंदर जाकर देखता है, तो उसका ही घोड़ा है वहाँ। तुरंत उसके ध्यान में सब बात आ जाती है। वह अपने सालों से कहता है—

“अरे जनाबो, राजा की भैंस ने घोड़ा कहाँ जना है, यह तो मेरा ही घोड़ा है। रात मैंने आप लोगों को तकलीफ न हो, इसलिए सीधे यहाँ आकर उसे खूँट से बाँधा था।”

पर उसके साले उसकी सुनते ही नहीं। वे लगातार चिल्लाते जा रहे थे, “राजा की भैंस ने घोड़ा जना है! राजा की भैंस ने घोड़ा जना है…!”

कुँवर सालों को समझाने का बहुत प्रयत्न करता है, लेकिन वे एक भी सुनने को तैयार नहीं थे। वे एक ही बात बोल रहे थे कि “राजा की भैंस ने घोड़ा जना है…”

कुँवर को एकदम सदमा पहुँचता है। वह ससुराल पत्नी को लेने आया था, यह बात भी भूल जाता है। और सिर पर हाथ लेकर ‘मैं लुट गया, मैं लुट…’ ऐसा कहते, रोते-रोते अपने घर की राह चलने लगा।

कुछ अंतर की राह वह काटता है, तो बीच रास्ते पर होता क्या है? एक सियार वहाँ बैठा है। वह कुँवर को रोता देखकर पूछता है—

“अरे कुँवर, आपको क्या हुआ है, रोते क्यों हो…किसको क्या हुआ है?”

कुँवर कहता है, “क्या बताऊँ तुम्हें, सियारदादा, कल मैं गया था ससुराल, अँधेरा छाने के बाद वहाँ पहुँचा। तो मैंने क्या किया, सीधा गौशाला में गया और भैंस के खूँटे के नजदीक घोड़े को बाँधा। अब सुबह उठकर घोड़े को लेने गया तो साले कहते हैं, राजा की भैंस ने घोड़ा जना है।”

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“ऐसा है क्या?…मैं देखता हूँ, मैं तुम्हारा घोड़ा तुम्हें वापस दिलवाऊँगा। आओ मेरे साथ। कोई डरने की बात नहीं है। तुम सिर्फ इतना करो कि राजा के पास जाकर उसे कहो कि तुम्हें न्याय चाहिए।”

सियार ने जो कहा, कुँवर ठीक वैसे ही राजा से जाकर कहता है। जमाई की माँग पर कुँवर का ससुर न्यायसभा (पंचायत) बुलाने के लिए तैयार हो जाता है। वो सारी प्रजा को न्यायसभा के लिए हाजिर होने का न्योता देता है। प्रजा भी तुरंत न्यायसभा के लिए हाजिर हो जाती है।

तो न्यायसभा बुलाई गई थी, एक खुले मैदान में। मैदान में न्यायसभा में बैठा था राजा, प्रधान, राजा के सब सरदार, सिपाही और गाँव के सभी लोग। उनमें सियार भी था।

तो पूछताछ शुरू हो जाती है। राजा अपने पुत्रों से पूछता है—

“तुम्हारी वकालत कौन करेगा?”

पुत्र कहते हैं, “वह देखिए हमारा वकील!”

वे पास ही बैठे अपने वकील को राजा को दिखाते हैं।

अब राजा जमाई से, यानी कुँवर से पूछता है—

“तुम्हारा वकील कौन है?”

कुँवर कहता है, “मेरी वकालत सियारदादा करेंगे।”

ऐसा कहकर कुँवर मैदान के एक कोने बैठे सियार की ओर उँगली से निर्देश करता है।

अब होता क्या है कि राजा जब सियार को देखता है तो सियार वहाँ बैठे-बैठे झपकियाँ लेता उसे दिखता है।

राजा उसे पूछता है, “क्यों रे सियारदादा, भरे दिन में झपकियाँ क्यों ले रहे हो? रात सोए नहीं क्या?”

उसपर सियार जवाब देता है—

“क्या बताऊँ महाराज, रात समुंदर में आग लगी थी, मैं गया था बुझाने, तो रात नींद नहीं ले सका, इसलिए अभी झपकियाँ आ रही हैं!”

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सियार की बात सुनकर वहाँ हाजिर सब लोग जोर से हँसने लगते हैं। राजा भी अपना हँसी रोक नहीं सका। हँसते-हँसते ही वह कहता है—

“क्या कह रहे हो सियारदादा, समुंदर को कभी आग लगती है क्या…कि तुम उसे बुझाने गए?”

उसपर सियार बड़े गंभीर आवाज में बोलता है—

“यदि राजा की भैंस घोड़ा जन सकती है, तो समुंदर में आग क्यों नहीं लग सकती?”

सियार की बात सुनकर राजा का मुँह एकदम उतर जाता है। सालों के मुँह पर भी मानो तमाचा पड़ जाता है। वे चुपचाप घोड़ा लाकर बहनोई के पास खड़ा कर देते हैं।

कुँवर अब देर नहीं लगाता, घोड़े पर अपनी पत्नी को बिठाता है, स्वयं उसपर सवार होता है और तुरंत वहाँ से अपने राज्य जाने के लिए निकलता है। लेकिन जाने से पहले वह सियारदादा को धन्यवाद बोलना भूलता नहीं।

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