Mitarta : Lok-Katha (Bengal)

Bengal Folktales in Hindi – बंगाल की लोक कथाएँ

मित्रता : लोक-कथा (बंगाल)
एक राजा था। उसके पुत्र एवं उसके मंत्री के पुत्र में गहरी दोस्ती थी। दोनों साथ-साथ रहते, खाते एवं घूमते थे। एक बार दोनों ने विदेश घूमने का निश्चय किया। रुपए-पैसे की कोई कमी न थी। दोनों साहसी भी खूब थे। एक दिन दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े। शाम होते-होते वे एक बहुत बड़े तालाब के किनारे पहुँचे। आस-पास कोई गाँव या बस्ती न देखकर उन्होंने वहीं रात व्यतीत करने का निश्चय किया। अपने घोड़ों को पेड़ से बाँधकर वे एक पेड़ की ऊँची डाल पर चढ़ गए। उन्होंने वहीं सोने की व्यवस्था की। अंधकार बढ़ने पर उन्हें विभिन्न प्रकार के जानवरों की आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। कुछ देर बाद एक विचित्र दृश्य देख दोनों घबरा उठे।

तालाब के मध्य पानी में हलचल हुई। जोर-जोर से फुफकारने की आवाज आने लगी। थोड़ी देर में एक विशाल साँप अपना फन उठाए पानी से निकला। किनारे आकर वह फुफकारने लगा। साँप के सिर पर अद्भुत मणि थी। उसका उज्ज्वल प्रकाश चारों ओर फैल रहा था।

साँप ने अपनी मणि को एक मिट्टी के ढेर पर रख दिया और वह फुफकारते हुए भोजन की खोज में उस पेड़ के नीचे पहुँचा, जिस पर दोनों मित्र बैठे हुए थे। साँप ने दोनों घोड़ों को खा लिया। दोनों सोच रहे थे कि अब साँप उन्हें भी डंस लेगा, लेकिन वह दूसरी ओर निकल गया। वे उत्सुकता से मणि को देखने लगे। उन्होंने पहले कभी मणि नहीं देखी थी, केवल कहानियों में ही सुना था। साँप के दूर जाते ही मंत्री के पुत्र की इच्छा मणि को प्राप्त करने की हुई। उसने सुना था कि मणि से निकलते प्रकाश को ढंकने का एकमात्र उपाय गोबर या फिर घोड़े की लीद है। घोड़े की लीद पेड़ के नीचे थी ही। वह जल्दी से पेड़ से उतरा, मणि को घोड़े की लीद से ढक दिया और फिर पेड़ पर चढ़कर बैठ गया। थोड़ी देर बाद साँप लौटा और मणि को ढूँढ़ने लगा। मणि न पाकर वह गुस्से से फन पटकने लगा। गुस्से एवं दुःख से उसने वहीं प्राण त्याग दिया।

सुबह होने पर राजा का बेटा एवं मंत्री का बेटा पेड़ से उतरे। मंत्री के बेटे ने मणि को निकाल लिया तथा उसे धोने के लिए तालाब की ओर गया। मणि को धोते ही उससे अपूर्व प्रकाश निकलने लगा। उस प्रकाश से तालाब का तल तक प्रकाशित हो गया। उन्होंने देखा कि तालाब के तल में दीवारों से घिरा एक विराट महल है। मंत्री के पुत्र ने कहा, “चलो, डुबकी लगाकर वहाँ चलते हैं।”

राजा के पुत्र ने डरते हुए कहा, “अगर वहाँ कोई दैत्य-दानव हुआ तो?”
मंत्री का बेटा साहसी था। उसने कहा, “चलते हैं, जो होगा, देखा जाएगा।”

दोनों ने तालाब में डुबकी लगाई। मंत्री के पुत्र के हाथ में मणि थी। उसके प्रकाश से चारों ओर जगमग हो गई। कुछ क्षणों में वे तालाब में स्थित राजमहल तक पहुंच गए। राजमहल का मुख्य द्वार खुला हुआ था। दोनों ने अंदर प्रवेश किया, लेकिन उन्हें कोई दिखाई नहीं दिया। महल के चारों ओर बागीचा था। बागीचे में तरह-तरह के फूल खिले हुए थे। महल की दीवारें सोने की थीं, जिसमें हीरे जड़े हुए थे। महल के अंदर की सारी वस्तुएँ सोने की थीं। लेकिन वहाँ कोई भी आदमी दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसा लगता था, मानो सब उस महल को छोड़कर अन्यत्र चले गए हैं।

घूमते-घूमते वे एक कमरे में पहुँचे। वहाँ सोने के पलंग पर एक लड़की को सोते देखकर वे आश्चर्यचकित हो गए। वह अत्यंत सुंदर थी। दूध के समान सफेद रंग था उसका। उसकी उम्र लगभग सोलह वर्ष होगी। दोनों उसे आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। कुछ देर बाद लड़की की नींद खुली। उसने आँखें मलते हुए उन्हें देखा और घबराकर बोली, “हाय, सर्वनाश! तुम लोग यहाँ कैसे आ गए? क्या तुम्हें पता नहीं कि यहाँ एक बहुत बड़ा साँप रहता है ? वह अभी आएगा और तुम्हें देखते ही खा जाएगा।”
“जानता हूँ।” दोनों ने कहा।

See also  Ayyappan Ka Avtar: Lok-Katha (Kerala)

“विश्वास नहीं हो रहा है,” बिस्तर से उठती हुई वह बोली, “उस साँप ने मेरे माता-पिता, भाइयों, नौकर-चाकर, सिपाही, स्वजन एवं समस्त आत्मीयजनों को खा लिया है। केवल मुझे छोड़ दिया है। तुम लोग तुरंत भाग जाओ, वरना वह तुम्हें भी खा जाएगा।”

मंत्री के पुत्र ने कहा, “अब साँप नहीं आएगा, क्योंकि वह मर चुका है।”
यह सुनकर लड़की बहुत खुश हुई। साँप से उसे बचाने के लिए वह उन्हें बार-बार धन्यवाद देने लगी। फिर साग्रह बोली, “तुम लोगों ने मुझे साँप से बचाया है, कृपया इस महल में मुझे अकेली छोड़कर मत चले जाना।”

दोनों ने उसे आश्वासन दिया। दोनों वहीं रहने लगे। लड़की देखने में जितनी सुंदर थी, स्वभाव में उतनी ही अच्छी थी। कुछ दिनों के बाद राजपुत्र ने उसके साथ विवाह कर लिया। उसके कुछ दिनों बाद राजपुत्र ने अपने देश जाने की सोची, लेकिन वह शाही ठाठ-बाट के साथ जाना चाहता था। मंत्री-पुत्र ने कहा कि वह पहले जाकर राजा को सबकुछ बता देगा, फिर हाथी-घोड़े, प्रजा के साथ आएगा और दोनों को राजसी ठाठ के साथ ले जाएगा। यह सुनकर राजपुत्र आश्वस्त हो गया।

तय कार्यक्रम के मुताबिक मंत्री-पुत्र जाने को तैयार हुआ। तालाब के ऊपर जाने के लिए मणि की जरूरत थी। दोनों ने तय किया कि मणि लेकर दोनों ऊपर जाएँगे फिर राजपुत्र मणि के साथ वापस आ जाएगा और मंत्री-पुत्र अपने देश की ओर रवाना होगा। इसी कार्यक्रम के अनुसार जल से बाहर आकर मंत्री-पुत्र ने अपने लौटने की तिथि राजपुत्र को बताई और अपने देश के लिए उसने प्रस्थान किया। राजपुत्र मणि लेकर अपनी पत्नी के पास वापस आ गया।

इधर मंत्री-पुत्र सीधे रास्ते से न लौटकर दूसरे रास्ते से अपने देश को लौटा, जिससे उसे देश पहुँचने में अधिक दिन लग गए। इसीलिए उसे पूरी तैयारी के साथ लौटने में देर हो गई। उधर राजपुत्र उस निर्जन महल में अत्यंत अधीर होकर मंत्री-पुत्र के लौटने की प्रतीक्षा करने लगा।

एक दिन राजपुत्र दोपहर को भोजन कर सो रहा था, तभी उस लड़की की नजर उस मणि पर पड़ी। उसने सोचा, पानी के बाहर क्या है, कभी देखा नहीं! अतः मणि लेकर ऊपर जाने एवं राजपुत्र के जगने से पहले लौट आने की इच्छा उसके मन में जगी। फिर उसने ऐसा ही किया। पानी से बाहर का वातावरण और प्राकृतिक दृश्य देखकर उसे अति प्रसन्नता हुई। तालाब के घाट की सीढ़ियों पर बैठकर उसने स्नान किया और कुछ देर तक इधर-उधर घूमती रही। उसके बाद अपने महल में लौट आई। धीरेधीरे उसका साहस बढ़ता गया। अब वह प्रतिदिन दोपहर में राजपुत्र के सो जाने के बाद जल से बाहर आने लगी।

जिस राज्य की सीमा के अंतर्गत वह तालाब था, उस राज्य का राजा अपने पुत्र के साथ एक दिन शिकार के लिए वहाँ आया। तालाब के पास ही उन्होंने अपना डेरा डाला। दोपहर को सभी खाने-पीने में व्यस्त थे। राजपुत्र घूमते-घूमते उसी तालाब के किनारे खड़ा हो गया। एक बुढ़िया वहीं आस-पास की सूखी लकड़ियाँ चुन रही थी। वह लड़की भी रोज की तरह मणि लेकर तालाब के घाट की सीढ़ी पर बैठी हुई थी। अचानक उसकी नजर उन दोनों पर पड़ी। वह अत्यंत घबरा गई और तालाब में डुबकी लगाकर अपने महल में पहुँचकर उसने राहत की साँस ली। इधर राजपुत्र लड़की की सुंदरता पर मुग्ध हो गया था। ऐसी रूपवती कन्या उसने पहले कभी नहीं देखी थी। एक झलक दिखाकर वह अदृश्य हो गई थी। राजपुत्र काठ की तरह स्थिर खड़ा रहा और सोचने लगा कि कितना अच्छा होगा, अगर वह रूपवती लड़की एक बार फिर उसे दिख जाए! लेकिन उसकी यह कामना पूर्ण नहीं हुई। वह पागल हो गया। बीच-बीच में वह कहता जाता, “अभी थी, अभी नहीं।”

कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था। राजपुत्र वहाँ से लौटना नहीं चाहता था। बड़ी मुश्किल से उसे राजमहल लाया गया। राजा ने राज्य के अनेक वैद्यों को बुलवाया। बहुत इलाज करवाया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। राजा का बेटा सिर्फ एक रट लगाए हुए था, “अभी थी, अभी नहीं।”

See also  Part 4 लब्धप्रणाशा - बंदर का कलेजा और मगरमच्छ

राजा अत्यंत उदास हो गए। उन्होंने घोषणा करवाई, “जो कोई भी राजपुत्र को ठीक कर देगा, उसकी बेटी के साथ राजपुत्र का विवाह करवा दिया जाएगा एवं आधा राज्य भी उसे मिलेगा।”

लेकिन कोई भी सामने नहीं आया। राजा एकदम निराश हो गए। एक दिन एक बुढ़िया ने आकर कहा, “महाराज ! मैं आपके पुत्र को ठीक कर सकती हूँ।”

राजा ने आश्चर्य से कहा, “तुम?”
बुढ़िया बोली, “हाँ महाराज!”
राजा ने पूछा, “राज्य के प्रसिद्ध वैद्य भी उसे ठीक नहीं कर सके और तुम ठीक कर दोगी? क्या तुम्हें उसके पागल होने का कारण पता है ?”
“हाँ महाराज! पर अभी नहीं बताऊँगी। पहले उसे ठीक कर दूँ, फिर बताऊँगी,” बुढ़िया बोली।
“ठीक है; पर कितने दिन लगेंगे?” राजा ने पूछा।
बुढ़िया बोली, “अभी नहीं बता पाऊँगी महाराज, पर आपका सहयोग मिला, तो आपका बेटा शीघ्र ठीक हो जाएगा।”
“मेरा सहयोग? कैसा सहयोग?” राजा ने पूछा।
“जिस तालाब के किनारे राजपुत्र पागल हुए थे, वहाँ मेरे लिए एक झोंपड़ी बनवा दीजिए। झोंपड़ी से कोई सौ कदम दूर आपके अनुचर छिपकर रहेंगे एवं मेरे निर्देश पर कार्य करेंगे।” बुढ़िया बोली।

राजा ने अनुचरों को आदेश दिया कि वे बुढ़िया के निर्देशानुसार कार्य करें। बुढ़िया फिर बोली, “लेकिन महाराज आप अपने वचन को भूल मत जाइएगा। मैं तो आपके बेटे से विवाह नहीं करूँगी, लेकिन बदले में आपको अपनी बेटी का विवाह मेरे बेटे फकीरचंद से करना होगा।”

उस बुढ़िया का फकीरचंद नामक एक बेटा था, इसलिए सब उसे ‘फकीर की माँ’ कहकर बुलाते थे, लेकिन फकीर एकदम पागल था। बीच-बीच में घर से भाग जाता था। वह लँगोट धारण करता था और सारे शरीर में राख मल लेता था। जब घर वापस आता, तब दरवाजे पर खड़ी माँ के सामने उछलउछलकर नाचता। उसकी बात किसी को समझ में नहीं आती थी।

राजा के आदेश से तालाब के किनारे झोंपड़ी बना दी गई। सौ कदम की दूरी पर अनुचरों के रहने की भी व्यवस्था कर दी गई। अनुचरों को यह भी आदेश दिया गया कि जब तक बुढ़िया न बुलाए, तालाब के किनारे कोई न जाए। बुढ़िया तालाब पर नजर रखने लगी।

इधर तालाब के अंदर राजमहल में राजपुत्र अपनी पत्नी के साथ मंत्री-पुत्र के आने का इंतजार कर रहा था, लेकिन मंत्री-पुत्र का कुछ अता-पता नहीं था। उस दिन की घटना के बाद लड़की एक दिन भी तालाब से बाहर नहीं निकली थी। लेकिन भाग्य का लिखा कौन जानता है। एक दिन दोपहर को भोजन के बाद जब राजपुत्र सोने के लिए गया, वह लड़की मणि हाथ में लेकर तालाब से बाहर निकली और इधर-उधर देखने के बाद पक्के घाट पर बैठ गई। बुढ़िया को इसी अवसर की प्रतीक्षा थी। वह बोली, “रूप की रानी बेटी, आओ मैं तुम्हें नहला देती हूँ।”

लड़की ने कोई आपत्ति नहीं की। बुढ़िया उसके पास आकर बैठ गई। मणि को उसके हाथ में देखकर बोली, “अरे उसे हाथ में क्यों ले रखा है। पानी में गिर सकती है ? घाट के ऊपर ठीक से रख दो।”

बुढ़िया ने मौका देखकर मणि को अपनी अंटी में छिपा लिया और अनुचरों को इशारा किया। अनुचरों ने लड़की को पकड़ लिया और उसे राजदरबार में पेश किया।
लड़की को देखते ही राजपुत्र बोल उठा, “मिल गई, मिल गई! वह तो मिल गई।”

राजपुत्र का पागलपन दूर हो गया। राजा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने अपने बेटे से उसकी शादी करनी चाही तो वह लड़की बोली, “महाराज, तालाब के अंदर महल में मेरे पति हैं। मैंने व्रत लिया है कि एक वर्ष तक किसी दूसरे पुरुष का मुँह भी नहीं देखूगी। इसीलिए अभी विवाह संभव नहीं है।”
यह सुनकर राजा उदास हो गए, पर कोई उपाय न देखकर सालभर तक प्रतीक्षा करने का उन्होंने निश्चय किया।

उधर मंत्री-पुत्र सारी व्यवस्था कर उसी तालाब के किनारे हाथी, घोड़ों एवं अनुचरों के साथ पहुंचा। तालाब के किनारे आम के बगीचे में तंबू तानकर तालाब की ओर एकटक देखता रहा। हालाँकि निर्दिष्ट समय बीत गया था, किंतु मंत्री-पुत्र को आशा थी कि राजपुत्र अवश्य बाहर आएँगे। परंतु राजपुत्र और उसकी पत्नी जल से बाहर नहीं निकले। मंत्री-पुत्र ने सोचा, निश्चय ही कोई घटना घटी है, लेकिन पातालपुरी तक कैसे पहुँचा जाएगा? वह जानता था कि साँप की मणि के बगैर वहाँ तक पहुँचना असंभव है।

See also  Mitti Khode Khapa-Khap : Lok-Katha (Bengal)

इधर व्रत की अवधि समाप्त होनेवाली थी। राजा ने अपने पुत्र के साथ उस लड़की के विवाह की तैयारियां शुरू कर दी। हलवाइयों ने पकवान बनाना शुरू कर दिया। नगर में घर-द्वार सजाए जाने लगे। सिंहद्वार पर नौबत बैठी। राजमहल में शहनाई बजने लगी। मंत्री-पुत्र ने पास के नगर से आनेवाली शहनाई की आवाज को सुना। एक राहगीर से पूछने पर उसने उसे बताया कि एक जलकन्या से इस देश के राजकुमार का विवाह होने जा रहा है। उसी की तैयारियाँ चल रही हैं।”

मंत्री-पुत्र सारी बात समझ गया। उसने तय किया कि पहले नगर जाकर वह सारी बातों का पता लगाएगा। वह नगर की ओर चल पड़ा। उसने एक ब्राह्मण के घर में शरण ली। ब्राह्मण ने उसका आदर-सत्कार किया, भरपेट भोजन कराया। विश्राम के बाद मंत्री-पुत्र ने पूछा, “हे ब्राह्मण देवता, कृपया बताएँ नगर में इतनी तैयारियाँ क्यों की जा रही हैं?”

ब्राह्मण बोला, “लगता है, तुम इस नगर में नए आए हो! नगर के निकट जंगल में एक तालाब है। वहाँ से एक अपूर्व सुंदर जलकन्या को पकड़कर लाया गया है। कल राजपुत्र के साथ उसका विवाह होगा। इसीलिए नगर में इतनी रौनक है।”
“यह तो बड़ी अद्भुत बात है। ऐसा तो मैंने कभी नहीं सुना। दरअसल, मैं बहुत दूर से आया हूँ। कृपया मुझे पूरी बात बताइए,” मंत्री-पुत्र ने कहा।

ब्राह्मण ने उसे बताया कि किस प्रकार इस देश का राजा शिकार खेलने जंगल गया था। वहाँ उसका पुत्र पागल हो गया और एक बुढ़िया ने एक जलकन्या को पकड़कर किस तरह उसे ठीक किया।

मंत्री-पुत्र ने पूछा, “बुढ़िया को राजा ने जो वचन दिया था, क्या वह पूरा हुआ?”
“नहीं, क्योंकि बुढ़िया का पुत्र फकीरचंद कहीं गायब हो गया है। बुढ़िया का कहना है कि अब उसके आने का समय हो गया है।”
“वह देखने में कैसा है ?” मंत्री-पुत्र ने पूछा।

ब्राह्मण बोला, देखने-सुनने में तो वह तुम्हारी तरह है, पर लँगोटी धारण करता है एवं पूरी देह में राख मलकर रहता है। हाथ में पेड़ की एक डाल लेकर माँ के घर के दरवाजे के सामने उछल-उछलकर नाचता है और कहता रहता है, “यह नहीं होगा, नहीं होगा।”

यह सुनने के बाद मंत्री-पुत्र ने मन-ही-मन एक योजना बनाई। वह ब्राह्मण से विदा लेकर नगर के बाहर आ गया। फिर फकीर चंद का वेश बनाकर पुन: नगर में लौट आया। हाथ में पेड़ की एक डाल लेकर बुढ़िया के घर के सामने उछल-उछलकर नाचने लगा। फकीरचंद की आवाज सुनकर बुढ़िया बहुत खुश हुई। वह समझ न सकी कि मंत्री-पुत्र फकीरचंद के वेश में आया है। खुश होकर बोली, “लगता है भगवान् ने मेरी सुन ली। बेटा, अब मुझे छोड़कर मत जाना।”
“नहीं-नहीं, यह नहीं होगा, यह नहीं होगा”, नकली फकीर चंद ने कहा।

बुढ़िया बोली, “मेरे साथ रहो। राजा की बेटी के साथ तुम्हारा विवाह कराऊँगी।”
फकीरचंद शादी के लिए राजी हो गया। बुढ़िया ने कहा, “तालाब से निकली जलकन्या को पकड़कर लाई हूँ। देखने चलोगे?”
“जाऊँगा, जाऊँगा।” नाचते-नाचते फकीरचंद ने कहा।
“साँप के सिर की मणि देखोगे?” बुढ़िया ने पूछा।
“देखूँगा, देखूँगा।” उसने कहा।

बुढ़िया ने अंटी से मणि को जैसे ही निकाला, नकली फकीरचंद ने उसे लेकर अपनी अंटी में रख लिया। बुढ़िया इतनी खुश थी कि उसका ध्यान उस ओर गया ही नहीं। वह फकीरचंद को राजमहल ले गई। जिस कमरे में राजकन्या थी, उसने उसे उसी कमरे में बैठा दिया। शाम होने पर उसने उससे चलने के लिए कहा, लेकिन वह चलने के लिए तैयार नहीं हुआ। वह बहुत चीखी-चिल्लाई, पर वह भी कम जिद्दी नहीं था। टस से मस नहीं हुआ। अंत में हारकर बुढ़िया पहरेदारों से उसका खयाल रखने को कहकर अकेली लौट गई।

See also  शहतूत

रात में जब सब सो गए, तब मंत्री-पुत्र लड़की के पास पहुँचा और उसने उसे अपना परिचय दिया। लड़की रो-रोकर बोली, “चाहे जैसे हो, मेरा उद्धार करो। तुम्हारे जैसा शुभचिंतक और कौन है ?”
मंत्री-पुत्र बोला, “इसीलिए तो मैं इस वेश में आया हूँ। मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही करना। आज रात ही यहाँ से भागना होगा।”

उसके बाद नकली फकीरचंद बार-बार खिड़की से बाहर आता, उछलता, नाचता। पहले तो पहरेदार थोड़े चौकन्ने हुए, फिर उसे पागल समझकर आपस में कहने लगे, “पागल है, लगता है सारी रात इसी तरह करेगा। कभी खिड़की से बाहर आएगा, कभी अंदर जाएगा। उसे ऐसा करने दो। हमलोग थोड़ा सो लेते हैं।”

मौका देखकर मंत्री-पुत्र जलकन्या को अपनी पीठ में बाँधकर खिड़की के रास्ते निकल भागा। वे उसी तालाब के किनारे पहुँचे। राजपुत्र को महल से निकालकर अपने साथ उन्हें लेकर मंत्री-पुत्र जल्दीजल्दी अपने देश की ओर लौटने लगा। हाथी-घोड़े सब उसने पहले ही लौटा दिए थे, अतः उन्हें पैदल ही लौटना पड़ा। पहाड़, नदी, जंगल पार करते हुए वे अपने देश की ओर बढ़ने लगे। इसी तरह कई दिन बीत गए। कोई आबादी उन्हें दिखाई नहीं पड़ी। एक विशाल बरगद के पेड़ के नीचे एक रात उसने विश्राम करने का निश्चय किया। थके होने के कारण राजपुत्र एवं उसकी पत्नी गहरी नींद में सो गई। मंत्री-पुत्र पहरा देने के लिए जगा रहा।

उस पेड़ पर एक चिड़ा और चिड़ी का बसेरा था। मंत्री-पुत्र ने दोनों को बातें करते हुए सुना। चिड़ी बोली, “मंत्री-पुत्र ने बहुत चालाकी से राजपुत्र और उसकी पत्नी को बचाया, लेकिन क्या वे सकुशल अपने देश पहुँच सकेंगे?”

चिड़ा ने कहा, “मैं तो आनेवाली भीषण विपत्ति को देख रहा हूँ। राजपुत्र को लेने के लिए राजा हाथी भेजेगा, किंतु राजपुत्र उस हाथी पर चढ़ते ही गिरकर मर जाएगा।”
चिड़ी ने पूछा, “अगर कोई राजपुत्र को हाथी की पीठ पर चढ़ने ही न दे तो?”
“तो फिर वह बच जाएगा, लेकिन इससे होनी टलेगी नहीं। राजमहल के सिंहद्वार से प्रवेश करते समय सिंहद्वार के टूटने से उसकी मौत हो जाएगी,” चिड़ा बोला।
चिड़ी ने पूछा, “यदि कोई सिंहद्वार पहले ही तोड़ दे?”

चिड़ा बोला, “तो वह बच जाएगा, लेकिन उससे भी होनी टलेगी नहीं। राजपुत्र के बहुत दिनों बाद देवकन्या जैसी पुत्रवधू के साथ लौटने की खुशी में राजा एक भोज देंगे। राजपुत्र की थाली में मछली का सिर परोसा जाएगा। उसे खाते ही गले में अटक जाने से राजपुत्र की मृत्यु हो जाएगी।”
“यदि कोई उस सिर को हटा दे तो?” चिड़ी ने पूछा।
“तब वह बच जाएगा, लेकिन फिर भी उसकी विपत्ति नहीं टलेगी। रात में जब राजपुत्र सोने जाएगा, तब एक विषधर साँप उसे डंस लेगा।” चिड़ा बोला।
“यदि कोई छिपकर साँप के टुकड़े-टुकड़े कर दे तो?” चिड़ी ने पूछा।
“फिर तो वह बच जाएगा, किंतु जो मनुष्य साँप को मारेगा, वह अगर आज ही ये बातें राजपुत्र को बता देगा, तो वह स्वयं सफेद पत्थर की मूर्ति बन जाएगा,” चिड़ा बोला।
“इससे बचने का कोई उपाय है ?” चिड़ी ने पूछा।
“है, अगर राजपुत्र अपनी पहली संतान को काटकर, उसके रक्त को मूर्ति पर लगाएगा, तो वह फिर जीवित हो उठेगा,” चिड़ा बोला।

सुबह हो गई। सूर्य आसमान में चमकने लगा। मंत्री-पुत्र ने चिड़ा और चिड़ी की और बातचीत नहीं सुनी थी। उन लोगों ने आगे की यात्रा आरंभ की। कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने देखा कि राजा ने उन लोगों के लिए हाथी, घोड़े और पालकी भेजी है। राजपुत्र हाथी पर बैठने ही वाला था कि उसी समय मंत्री-पुत्र ने उसे रोकते हुए कहा, “मैं हाथी पर जाऊँगा, तुम घोड़े पर चढ़ो।”

राजपुत्र नाराज हुआ, पर उसने कुछ कहा नहीं। उसने मन-ही-मन सोचा, आखिर मंत्री-पुत्र के कारण ही तो मैं अपनी पत्नी के साथ घर लौट रहा हूँ। नगर में प्रवेश करने के बाद राजमहल का सजा हुआ खूबसूरत सिंहद्वार नजर आया। लेकिन मंत्री-पुत्र ने उस द्वार को तोड़ दिया। राजपुत्र का मन अत्यंत उत्तेजित हुआ, पर वह चुप रहा। भोजन के समय जब राजपुत्र की थाली में मछली का सिर परोसा गया, तब मंत्री-पुत्र ने झट से उस सिर को उठाकर अपने मुँह में डाल लिया। भोजन के बाद मंत्री-पुत्र ने राजपुत्र से कहा, “मैं घर जा रहा हूँ। मुझे अनुमति दीजिए।”

See also  पहचान

मंत्री-पुत्र के व्यवहार से राजपुत्र इतना खिन्न हो चुका था कि उसने अनुमति देने में देर नहीं की। लेकिन मंत्री-पुत्र घर नहीं गया। वह राजपुत्र के पलंग के नीचे छुप गया। राजपुत्र और उसकी पत्नी के सोने के बाद आधी रात को उसने देखा कि एक विषधर नाग फन उठाए हुए कमरे में आ रहा है। साँप जैसे ही राजपुत्र को डसने को उद्यत हुआ, मंत्री-पुत्र ने तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। उन्हें राजकन्या के पानी के बरतन में छुपाने लगा, तो बरतन लुढ़क गया। आवाज सुनकर राजकन्या उठ बैठी। मंत्री-पुत्र को शयनकक्ष में देखकर वह चिल्ला उठी। राजपुत्र भी जाग गया। पलंग के पास रखी तलवार को उठाकर जैसे ही मंत्री-पुत्र को मारने उठा, मंत्री-पुत्र बोल उठा, “विश्वास करो मित्र। तुम्हारी जान बचाने के लिए ही मैंने यह सब किया है।”
“फालतू बातें मत करो। पातालपुरी को छोड़ने के बाद से ही मैं तुम्हारे आचरण में परिवर्तन देख रहा हूँ,” राजपुत्र ने क्रोधित होकर कहा।
मंत्री-पुत्र ने अत्यंत शांत भाव से कहा, “तुम्हें बचाने के लिए ही मैंने यह सब किया है। इसके अतिरिक्त मेरे पास और कोई चारा नहीं था।”
राजपुत्र बोला, “सच बात क्यों नहीं बोल रहे हो? बोलो, किसने तुम्हारा मुँह बंद कर रखा है?”

“मेरे भाग्य ने! अगर मैंने सच बता दिया, तो पत्थर की मूर्ति बन जाऊँगा। यदि तुम मुझे बचाना चाहोगे, तो तुम्हें अपनी पहली संतान की बलि चढ़ाकर उसके रक्त से मुझे नहलाना होगा,” मंत्री-पुत्र ने कहा। परंतु राजपुत्र का क्रोध शांत नहीं हुआ। उसने कहा, “मुझे बेवकूफ मत समझो। घुमा-फिराकर बात मत करो। इससे कोई लाभ नहीं होगा। सच क्या है, बताना ही होगा!”

तब दुःखी होकर मंत्री-पुत्र ने चिड़ा एवं चिड़ी से सुनी सारी बातें उसे बताईं। मंत्री-पुत्र जैसे-जैसे उसे बताने लगा, वैसे-वैसे उसके शरीर का एक-एक अंग सफेद पत्थर का होने लगा। अंतिम बात बताते ही वह पूरी तरह सफेद मूर्ति में बदल गया। तब राजपुत्र को बहुत पछतावा हुआ और वह अपने मित्र के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गया।

कुछ दिनों बाद राजपुत्र को एक सुंदर-सा पुत्र हुआ। उस पुत्र को देखकर वह अत्यंत पुलकित होता, लेकिन कमरे के एक कोने में रखी मंत्री-पुत्र की मूर्ति को देखकर उसका हृदय हाहाकार कर उठता। राजपुत्र एवं उसकी पत्नी ने निश्चय किया कि मंत्री-पुत्र को बचाने के लिए वे अपने पुत्र का बलिदान कर देंगे। संतान के खून से सफेद पत्थर की मूर्ति को नहलाते ही मंत्री-पुत्र जीवित हो उठा। राजपुत्र ने मंत्री-पुत्र को हृदय से लगा लिया। लेकिन राजपुत्र ने बेटे के कटे शरीर को देखकर मंत्री-पुत्र का हृदय फटने लगा। कैसे उसे जीवित किया जाए, वह सोचने लगा। उसे ध्यान आया कि उसकी पत्नी को माँ काली की सिद्धियाँ प्राप्त थीं। मंत्री-पुत्र राजपुत्र के बेटे के कटे शरीर को उसके पास ले गया। माँ काली की कृपा से राजपुत्र का बेटा जी उठा। पुत्र को जीवित देखकर राजपुत्र एवं उसकी पत्नी की खुशी का ठिकाना न रहा। उसके बाद सभी के दिन सुखपूर्वक बीतने लगे।

Leave a Reply 0

Your email address will not be published. Required fields are marked *