Kahani Dishru Ki : Lok-Katha (Assam)

कहानी दिशरू की : असमिया लोक-कथा
राजा हरिचरन व उसकी रानी हर तरह की सुख-सुविधा और वैभव होने के बावजूद हमेशा दुःख में डूबे रहते थे। वजह थी, उनका निस्संतान होना। यह जानकर कुछ ज्योतिषी राजा के पास आए तो रानी ने अनुरोध किया, “हे राजन! इन ज्योतिषियों को अपना हाथ दिखाइए, शायद ये बता सकें कि हमारी संतान कब होगी? पुत्र हो या पुत्री, हमारे लिए तो दोनों ही खुशियाँ लाएँगे।”

रानी की बात मानकर राजा ने एक ज्योतिषी को अपना हाथ दिखाया तो उसने जो कहा, उसे सुन राजा और व्यथित हो गया। रानी ने जब जानना चाहा कि उसके हाथ में क्या लिखा है तो वह बोला, “मेरी प्रिय रानी, सुनो, लेकिन तुम भी दुःखी हो जाओगी। हमारे यहाँ आनेवाले समय में तो कोई संतान नहीं होनेवाली, पर अगर कभी पुत्र हुआ तो अन्य राज्य हमारे अधीन हो जाएँगे, पर अगर पुत्री हुई तो हमारा राज्य दूसरों के अधीन हो जाएगा। हम बरबाद हो जाएँगे।”

कुछ वर्ष बाद रानी गर्भवती हुई तो दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा, लेकिन राजा ज्योतिषी की बताई बातें भूला न था। उसी समय राजा को कुछ हाथियों को पकड़ने के लिए दिरारा नामक स्थान पर जाना पड़ा और जाते समय वह रानी को कुछ हिदायतें देकर गया, “मेरी प्रिय रानी, अगर तुम्हें पुत्र हुआ तो उसे तुम बहुत ही सावधानी से एक बैंगनी कागज में लपेट देना, पर अगर पुत्री हुई तो तुरंत उसे आंवल नाल और अन्य चीजों सहित जमीन में दबा देना। किसी को इस बात का पता नहीं चलना चाहिए।”

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रानी ने कुछ दिनों बाद एक पुत्री को जन्म दिया, जो अद्वितीय सुंदरी थी। उसे देखकर रानी की राजा का आदेश मानने की इच्छा नहीं हुई। उसने निश्चय किया कि चाहे जो हो जाए, वह राजा से छिपाकर अपनी पुत्री का पालन-पोषण करेगी। राजा जब लौटा तब तक पंद्रह वर्ष बीत चुके थे। इस समय तक वह लड़की, जिसका नाम दिशरू था, एक खूबसूरत युवती बन चुकी थी। अगर रानी ने उसे सबसे छिपाकर न रखा होता तो अब तक दूर-दूर तक उसकी सुंदरता के चर्चे होने लगते। जब राजा वापस आया तो रानी ने कुछ इस तरह से उसका स्वागत किया—

“जब आप दूर दिरारा में थे और कोई भी मेरे पास न था,
मैंने एक सुनहरी फूल को जन्म दिया,
ऐसा फूल जो सबसे सुंदर है,
हे राजन, मेरे स्वामी, मेरे प्रियतम।”

राजा को लगा कि उसके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ था यह सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। रानी ने सारे यत्न किए कि राजा और दिशरू एक-दूसरे को कभी देखें नहीं। पर नियति में तो और कुछ लिखा था। राजा ने दिशरू को देख लिया और उसकी मानो साँसें ही रुक गईं, “ऐसा सौंदर्य, इससे पहले इतनी रूपवती और गोरी लड़की मैंने पहले कभी नहीं देखी।” राजा की उत्सुकता लगातार बढ़ती ही जा रही थी। वह बोला, “हे अनुपम सुंदरी, मुझे बताओ कि तुम किसकी पुत्री हो? अगर मैं तुम्हारे गोरे हाथ थामना चाहूँ तो क्या तुम मेरे पास आओगी?” तभी दौड़ती हुई रानी वहाँ आई और उसने राजा के आगे एक पहेली रखी—

“राजन, मुझे बताओ कि अगर अपने ही हाथों से आप बैंगन का पौधा लगाते हो, तो क्या फूल के साथ आप पौधे को भी खाना चाहोगे?”

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राजा को समझ नहीं आया कि इस पहेली से उसका क्या संबंध है, पर चूँकि उसके सामने एक सुंदरी खड़ी थी और राजा का दिल उस पर आ गया था तो उसे लगा कि उस सुंदरी को वह अपने मन की बात पहेली ही में बता देता है। वह बोला—

“हो रानी, जो तुम कह रही हो, वह एकदम सही है,
लेकिन जब अपने ही हाथों से जब आप किसी तुरई को बोते हो,
तो आप फल के साथ-साथ उसकी पत्तियाँ भी खाते हो।”

रानी ने यह सुन पूछा, “हे राजन! मुझे बताओ। अगर अपने हाथों से आपने मिर्ची बोई है तो क्या फूल के साथ आप पेड़ भी लेना चाहोगे?”

एक विजयी भाव से राजा बोला, “जो तुमने कहा, यह भी सच है। हे रानी! पर जब अपने ही हाथों से आप कद्दू बोते हो, आप फल के साथ-साथ उसकी लताएँ भी खाते हो।”

वह आगे बोला, “पर मेरी रानी, मैं तो बस इस सुंदरी के रूप की प्रशंसा कर रहा हूँ। यह इतनी सुंदर है कि यह मेरी रानी बनने लायक है। हे सुंदरी! तुम्हें इस बारे में क्या कहना है?” लड़की की ओर देखते हुए राजा ने पूछा।

“नहीं, नहीं, राजन! पर यह तो आपके मांस और रक्त का ही हिस्सा है।” गहन पीड़ा से रानी रोने लगी।

तब जाकर राजा को पहेली का आशय समझ आया, पर तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। जिस सुंदरता का वह एकदम दीवाना हो गया था, वह तो उसकी अपनी ही बेटी थी। सदमे में डूबा राजा बोला—

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“मेरा अपना ही मांस व रक्त, ओह, यह कैसी दुविधा है?
तब तो यह और मैं कभी एक नहीं हो सकते।
फिर कैसे मेरी व्यथा शांत होगी?
इसे मैं जब-जब देखूँगा, मेरा दर्द उभर आएगा,
इस सुंदरी दिशरू को जाना होगा, ताकि न तो मेरी आँखें इसे देख सकें और न ही मेरे मन में इसके लिए भावनाएँ जाग्रत् हों।”

लेकिन दिशरू आखिर कहाँ जाए, शर्म व अपमान से उसने कामना की कि वह धूल में मिल जाए और उसने ईश्वर से कामना की कि उसे वह मौत दे दे। वह किस पर बैठकर जाएगी? अगर उड़ना जानती तो उड़ती हुई राख के साथ उड़ जाती और वहाँ जाकर गिरती, जहाँ धरती का अंत होता है, या अंतहीन प्रवाह की तरह लगातार बहती और वहाँ जाकर रुकती, जहाँ पानी समुद्र में जाकर मिल जाता है।

शोकाकुल दिशरू रोने लगी और बोली—

“हे सुंदरता, जो मेरी बरबादी का कारण है, उसका मैं त्याग करती हूँ।
हे पिता, जो मेरे हुए अपमान का कारण हैं, उन्हें मैं शाप देती हूँ।
अपने ही भाग्य से बरबाद होने के लिए मैं आपको अपनी इस अवस्था का जिम्मेवार ठहराती हूँ।
मेरे जाने के बाद आपका सिंहासन छिन जाए।
पिताजी, आज के बाद सुंदरता और आपका वंश एक-दूसरे के लिए अजनबी के समान होंगे।”

इस प्रकार एक सुंदरता अपमानित हुई, सुंदरता के लिए रोई। इस प्रकार सुंदरता के लिए सुंदरता का शाप फूटा। और जब दिशरू अपनी यात्रा पर निकली तो उसके चाँदी के आँसू वहाँ टपके। “मेरी पुत्री, मेरी पुत्री, मत जाओ।” पछतावे और दुःख में डूबा राजा अपनी बाँहें फैलाता हुआ रोने लगा। अब तक उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था।

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“दिशरु, मेरी पुत्री, मत जाओ।” रानी भी रोने लगी। और साथ में सारे नौकर, सारी प्रजा और यहाँ तक कि सारे पशु रोने लगे।

“रुक जाओ, प्यारी दिशरू, रुक जाओ।” उन्होंने प्रार्थना की, लेकिन दिशरू अब वहाँ नहीं रुक सकती थी। इस तरह वह सबसे दूर, वहाँ से बहुत दूर अकेली ही चली गई।

और वह कहाँ गई, किसी को नहीं पता।

दुःखी स्वर में सब उसे सुखी रहने की दुआएँ देने लगे—

“उसकी पुण्यात्मा अब शांति से रहे,
क्योंकि स्वर्ग से रानी उसे लाई थी,
रानी की प्यारी बेटी, वापस स्वर्ग में चली गई है,
इन आखिरी शब्दों के साथ हम तुम्हें विदाई देते हैं।”

(साभार : सुमन वाजपेयी)

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