Buddhiman Kaaji: Lok-Katha (Kashmir)

बुद्धिमान काजी कश्मीरी लोक-कथा
एक दिन राजा अपने दरबार में बैठा था और बुद्धिमान काजी उसके पीछे बैठा था। जब वे बात कर रहे थे, तभी एक कौआ उड़ता हुआ वहाँ आया और उसने जोरों से काँव-काँव की।

‘काँव, काँव, काँव!’ कौआ करता रहा और हर कोई उसकी इस गुस्ताखी से अचंभित था।
राजा ने कहा, ‘इस पक्षी को यहाँ से निकालो।’ और तुरंत पक्षी को महल से बाहर निकाल दिया गया।
पाँच मिनट बाद फिर से कौआ उड़कर ‘काँव, काँव, काँव’ के साथ वहाँ आ गया।

क्रुद्ध राजा ने कौए को गोली मारने का आदेश दिया।
‘अभी नहीं, महाराज।’ बुद्धिमान काजी ने रोका, ‘शायद आपकी बाकी प्रजा की तरह से यह कौआ भी आपके सामने अपनी कोई फरियाद लेकर आया है।’
‘बहुत अच्छा, तो तुरंत इसकी जाँच की जानी चाहिए।’ राजा ने आदेश दिया और एक सिपाही को यह पता लगाने के लिए नियुक्त कर दिया कि कौवा क्या चाहता था।

जैसे ही सिपाही महल से निकला, कौवा भी उड़कर बाहर आया और सिपाही के आगे-आगे नीचे उड़ता हुआ उसे निकट ही लगे हुए एक चिनार के सुंदर पेड़ तक ले गया। वहाँ पहुँचकर कौआ एक घोंसले में जा बैठा, जो उस डाली पर टिका हुआ था, जिसे एक लकड़हारा काट रहा था। पूरे समय कौआ बहुत जोर से काँव-काँव करता रहा।

सिपाही तुरंत सारी स्थिति को समझ गया और उस आदमी को डाली काटने से रोकने का आदेश दिया। जैसे ही आदमी नीचे जमीन पर पहुँचा, कौए ने शोर मचाना बंद कर दिया। ‘क्या तुमने वह डाली काटनी शुरू करने से पहले उस पर पक्षी का घोंसला नहीं देखा था?’ सिपाही ने पूछा।

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‘मेरे लिए एक पक्षी का घोंसला क्‍या है?’ आदमी ने बेअदबी से जवाब दिया, ‘शायद तुमसे थोड़ा सा अधिक कीमती।’

इस तरह से क्रोध दिलाए जाने पर सिपाही ने लकड़हारे को गिरफ्तार कर लिया और उसे राजा के पास ले गया तथा क्‍या हुआ था, उसकी सारी सूचना दी। राजा काजी की तरफ मुड़ा और पूछा, ‘इस आदमी को इसकी गुस्ताखी के लिए क्या दंड दिया जाना चाहिए?’

काजी ने जवाब दिया, ‘महाराज, कुत्ते कभी-कभी भौंकते हैं। अगर इस आदमी को पहले से पता होता कि सिपाही इस राज्य के आदेश का पालन कर रहा था और अपना खुद का हुक्म नहीं चला रहा था तो किसी भी प्रकार की गुस्ताखी नहीं होती। शायद यह आदमी पहले ही पछता रहा है। इसको दंड के रूप में कुछ बेंत लगाए जा सकते हैं।’

लकड़हारे के तलवों पर पाँच बेंत लगाए गए और उसे छोड़ दिया गया। हालाँकि दंड कठोर नहीं था, उसे अपने घर तक के पूरे रास्ते में उछल-उछलकर चलना पड़ा था।

(रस्किन बांड की रचना ‘कश्मीरी किस्सागो’ से)

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