सौन्दर्य-बोध और शिवत्व-बोध
Anonymous Essays – अज्ञेय रचना संचयन वैचारिक निबंध
आलोचना कई प्रकार की होती है-क्योंकि वह कई उद्देश्यों से की जा सकती
है। सब आलोचना मूल्यवान नहीं होती : उसका उद्देश्य प्रभाव उत्पन्न
करना या व्याख्या करना भी हो सकता है। लेकिन अन्ततोगत्वा समालोचक को
कहीं-न-कहीं मूल्यों का विचार भी करना ही पड़ता है-कृति का मूल्यांकन
वह न भी करे तो भी स्वयं उसकी रसास्वादन की प्र्रकिया में उसके
स्वीकृत मूल्यों या प्रतिमानों का महत्त्व होता है। समालोचक क्या
पाता है, यह अनिवार्यतया इस पर निर्भर करता है कि वह क्या लेकर चलता
है।
और मूल्यांकन प्रत्यक्ष या परोक्ष-बिना मूल्यों या प्रतिमानों के
नहीं हो सकता; मानदंड के बिना माप कैसे हो सकती है? यहाँ पर हम
समालोचना की मूल-समस्या के सामने आ खड़े होते हैं।
मूल्य किसे कहते हैं? यह प्रश्न नि:सन्देह बहुत व्यापक है, और यह भी
कहा जा सकता है कि युग-युगान्तर से दार्शनिकों और साधकों दोनों की
मूल जिज्ञासा यही रही है : वह अन्तिम कसौटी क्या है जिस पर कस कर हम
किसी भी कृति के धातु को पहचान सकते हैं? किन्तु अपनी जिज्ञासा को
सीमित रखना असम्भव नहीं है, और न ऐसी सीमित पड़ताल अनुपयोगी ही होगी।
समीक्षक को जैसा सुपठित, शास्त्र-निष्णात होना चाहिए वैसे हम नहीं
हैं इसका हमें पूरा ज्ञान है। आचार्यत्व की न हममें पात्रता है, न
आकांक्षा। किन्तु मूल्यों का प्रश्न केवल आचार्यों के लिए महत्त्व
रखता हो, ऐसा नहीं है; साहित्य के प्रत्येक अध्येता के लिए वह एक
गुरुतर प्रश्न है, और लेखक के लिए तो उसकी मौलिकता असन्दिग्ध है,
क्योंकि कृतिकार अपनी कृति का सबसे पहला और कदाचित् सब से अधिक
निर्मम-परीक्षक है। (लेखक को अपनी रचना का मोह भी होता है; पर मोह और
निर्ममत्व के अलग-अलग स्तर हैं; और मूल्यों का विचार उसी स्तर पर
होता है जिस पर लेखक ममता को एक ओर रख देता है।) निष्ठावान लेखक और
अध्यवसायी पाठक के नाते हम आशा करते हैं कि मूल्यों या प्रतिमानों के
सम्बन्ध में हमारे विचार अन्य पाठकों के लिए उपयोगी हों सकेंगे। यह
भी सम्भव है कि वे अपने साधारणत्व के कारण ही उनके लिए अधिक ग्राह्य
हों, पुरोहित की बात से पड़ोसी की बात अधिक ध्यान से सुनी जाती है और
अधिक गहरे जा कर छूती है।
हम मानते हैं कि सब प्रतिमानों का, सब मूल्यों का स्रोत मानव का
विवेक है। वही उसे सदसद् का ज्ञान देता है-फिर उस सत् और असत् का
क्षेत्र चाहे जो हो। इस साधारण स्थापना पर कदाचित् अधिक लोगों को
आपत्ति न होगी-कम-से-कम आज के मानववादी युग में, जिसमें यह नहीं समझा
जाता कि मानव के विवेक की दुहाई देना प्रकारान्तर से शाश्वत अथवा
ब्रह्मसम्भूत सनातन मूल्यों के अस्तित्व का खंडन करना मात्र है।
किन्तु इससे हम सौन्दर्य के विषय में जिस उपपत्ति तक पहुँचते हैं, वह
भी ऐसी सहज-ग्राह्य होगी, ऐसी आशा हमें नहीं होती। कदाचित् कुछ
बुद्धिवादी भी उस पर आपत्ति करेंगे। यद्यपि हमें ऐसा जान पड़ता है कि
जब हम सौन्दर्य-बोध की चर्चा करते हैं तब हम उसे स्वयंसिद्ध ही मान
लेते हैं, क्योंकि बुद्धि को हेय मानकर बोध को महत्त्व नहीं दिया जा
सकता।
यदि यह कहना उचित है कि मूल्यों का स्रोत मानव का विवेक है तो यह
कहना भी ठीक है कि सौन्दर्य-बोध मूलत: बुद्धि व्यापार है। सौन्दर्य
क्या है, हम नहीं जानते; सौन्दर्य की परिभाषा बड़े-बड़े मर्मज्ञ नहीं
कर सके और हम ‘गहि-गहि गरब गरूर’ इस कंटकाकीर्ण पथ पर चलने वाले नहीं
हैं। किन्तु सौन्दर्य क्या है, यह न बता पाकर भी सुन्दर क्या है यह
हम जानते हैं, पहचानते हैं; बता सकते हैं कि क्या सुन्दर होता है। और
सुन्दर क्या है, यह बता सकने का अर्थ यह है कि हम कुछ ऐसे गुणों को
पृथक कर सकते हैं जिनके कारण सुन्दर सुन्दर है। ये तत्त्व क्या हैं?
उनकी तालिका प्रस्तुत करना अनावश्यक है। यहाँ आग्रहपूर्वक यही
दुहराना यथेष्ट है कि सौन्दर्य-बोध बुद्धि का व्यापार है : बुद्धि के
द्वारा ही हम उन तत्त्वों को पहचानते हैं; मानव का अनुभव ही उन
त्तत्वों की कसौटी है।
यह स्थापना विवादास्पद तो हो ही सकती है। यह आपत्ति भी की जा सकती है
कि बुद्धि के साथ हठात् अनुभव का उल्लेख करना वास्तव में बुद्धि के
नाम पर सौन्दर्य की भोगवादी व्याख्या करना है। वास्तव में ऐसा नहीं
है, परन्तु यह स्पष्ट करने से पहले एकाध उदाहरण लेना उपयोगी होगा। हम
कहते हैं लय अथवा ‘रिदम’। शैशवकाल से ही हम जानते हैं कि हृदय का
लययुक्त सम स्पन्दन आरोग्य और सहजावस्था की निशानी है, स्वस्थ होने
की निशानी है; और असम स्पन्दन या लय-भंग उद्वेग, परेशानी, असुख के
चिह्न हैं। तब, यदि हम मानते हैं कि लयमयता कला का अथवा सुन्दर का एक
मूल गुण है, तो क्या यह अपने अनुभूत सत्य का निरूपण ही नहीं है? इसी
प्रकार हम मानते हैं कि सीधी रेखा सुन्दर नहीं होती, वक्र रेखाएँ
सुन्दर होती हैं : यहाँ क्या फिर हम अपना अनुभव नहीं दुहरा रहे हैं?
हमारे अंगों का कोई भी सहज निक्षेप वक्रता या गोलाई लिए होता है-अबोध
शिशु भी जब हाथ-पैर पटकता है तो मंडलाकर गति से-सहज गति सीधी रेखा
में होती ही नहीं, और सीधी रेखा में अंग-संचालन अत्यन्त क्लेश-साध्य
होता है। अत: वक्रता को कला-गुण या सौन्दर्य-तत्त्व मानने में हम फिर
अपना अनुभव दोहरा रहे हैं : गोचर अनुभव का कार्य-कारण ज्ञान के सहारे
(बुद्धि द्वारा) प्राप्त किया हुआ निचोड़ ही हमारे सौन्दर्य-बोध का
आधार है। और चित्र या मूर्ति में जो रेखा की वक्रता है, अर्थात् जो
दृश्य, स्पृश्य अथवा स्थूल है, वही यदि काव्य में आकर उक्ति की
वक्रता का परम सूक्ष्म रूप ले लती है, तो क्या हमारी बुद्धि उसे पकड़
नहीं सकती? गोचर अनुभव से पाया हुआ सूक्ष्म बोध क्या वहाँ हमारा
सहायक नहीं होता?
ये सरलतम उदाहरण हैं-क्योंकि गति का बोध सबसे पहला बोध है। किन्तु हम
क्रमश: जटिलतर प्रतिमानों की परीक्षा करते चलें तो भी इसी बात की
पुष्टि होगी : स्थिरता, सन्तुलन; परिचित और नव्यता; गाम्भीर्य,
सूचकता, सार्वभौमता-सर्वत्र हम पाएँगे कि जिस गुण को भी हम कला का
प्रतिमान मानते हैं, वह हमारे अनुभव से उद्भुत है, और हमारे विवेक
द्वारा प्राप्त किया गया है। प्रतिमान-रूपी कोई भी अमृत-घट हमारे
अनुभव के महासागर को मथ कर ही निकल सकता है, और हमारी बुद्धि ही
हमारी मन्थानी है।
भोगवाद सम्बन्धी आपत्ति का यहाँ निराकरण हो जाता है। कला-मूल्य हमें
अनुभव के सागर से ही प्राप्त होते हैं-किन्तु अनुभव अपने आप में एक
प्रतिमान नहीं है। अनुभव की भित्ति पर बुद्धि द्वारा प्रतिष्ठित
तत्त्व ही प्रतिमान हो सकता है। प्रतिमान की उपलब्धि हमें बुद्धि
द्वारा ही होती है, यद्यपि उसके लिए हम अनुभव के सागर की थाह लेते
हैं। और क्योंकि ये प्रतिमान हमें बुद्धि के द्वारा उपलब्ध होते हैं,
इसलिए सुन्दर से हमें जो उपलब्धि होती है उसे हम आनन्द कहते हैं और
केवल गोचर अनुभव से मिलने वाले सुख से अधिक गौरव देते हैं।
तो सौन्दर्य के तत्त्व बुद्धि पर आधारित हैं, और सुन्दर का आस्वादन
बुद्धि का व्यापार है। इससे और परिणाम निकलते हैं। बुद्धि अनुभव के
सहारे चलती है-अनुभव व्यक्तिगत, समाजगत, जातिगत, युग-युगान्तर संचित।
और अनुभव कोई स्थिर और जड़ पिंड नहीं है, वह निरन्तर विकासशील है।
अत: बुद्धि भी विकासशील है-मानव का विवेक भी विकासशील है। इस अर्थ
में शाश्वत मूल्यों की बात अनुचित अथवा अर्थहीन हो जाती है। किन्तु
विकास का सही अर्थ समझना चाहिए। बुद्धि का नए अनुभवों के आधार पर
क्रमश: नया स्फुरण और प्रस्फुटन होता है और नया अनुभव पुराने अनुभव
को मिटा नहीं देता, उसमें जुड़ कर उसे नई परिपक्वता देता है। अनुभव
के गणित में जोड़ ही जोड़ है, बाकी नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में
हम परंपरा की चर्चा इसी अर्थ में करते हैं-तरतमता उसमें अनिवार्य
है। तो मूल्य या प्रतिमान, शब्दार्थ की दृष्टि से शाश्वत भले ही न
हों, स्थायी अवश्य होते हैं, और उनमें जो परिष्कार या नया संस्कार
(परिवर्तन उसे न कहना ही सीमचीन होगा) होता है, उसमें शतियाँ लग जा
सकती हैं। नि:सन्देह दूसरे भी मूल्य हैं-सामाजिक मूल्य-जो सामाजिक
परिवर्तनों के साथ अपेक्षया अधिक तेजी के साथ बदलते हैं; किन्तु यहाँ
हम उनकी चर्चा नहीं कर रहे हैं, उन से अधिक गहरे मूल्यों की बात कर
रहे हैं। इन अधिक गहरे मूल्यों में भी यदि हम देखते हैं कि कभी
अपेक्षया अधिक द्रुत गति से संस्कार होता है, तो उसका कारण यही है कि
जहाँ हमारी तर्कना या बुद्धि निरन्तर हमारे अनुभव को माँजती और सायास
विश्लिष्ट-संश्लिष्ट करती चलती है, वहाँ कभी संचित अनुभव का दबाव
सहसा हमें नई दृष्टि भी दे देता है-अर्थात् बुद्धि का यह व्यापार एक
प्रखतर आलोक से दीप्त हो उठता है। यद्यपि ऐसा भी जब होता है तो अकारण
नहीं होता; जो बुद्धि उस आलोक से लाभ उठा कर नई प्रतिपत्ति करती है,
वह फिर उसके आविर्भाव का कारण भी खोजती और खोज लेती है।
मूल्यों की चर्चा में यहाँ तक हमने अपने को सौन्दर्य के प्रतिमानों
तक सीमित रखा है। किन्तु जब हमने कहा कि सब प्रतिमानों का, सब
मूल्यों का स्रोत मानव का विवेक है, तब स्पष्ट ही हमने ऐसी कोई
मर्यादा नहीं निर्दिष्ट की। उस कथन से अवश्य ही यह परिणाम निकलता है
कि शिवत्व के प्रतिमान-नैतिक प्रतिमान भी-मानव के विवेक से उद्भुत
होते हैं। यहाँ एक साथ ही दो प्रश्न उठते हैं। क्या हम ऐसा मानते
हैं, और क्या सौन्दर्य के और शिवत्व के प्रतिमानों में कोई अनिवार्य
सम्बन्ध, या कोई भी सम्बन्ध है?
पहले प्रश्न का उत्तर आवश्यक नहीं है। स्पष्ट ही हमारी पहली स्थापना
से वह परिणाम निकलता है और अगर हमें वह स्वीकार्य न होता तो हमारे
लिए अपनी पहली बात को ही अधिक मर्यादित करके कहना अनिवार्य हो जाता।
यदि हम मानते हैं कि सब प्रतिमानों का स्रोत मानव का विवेक है, तो हम
सहज ही यह मानते हैं कि नैतिक प्रतिमानों का स्रोत मानव का विवेक है
और कदाचित् इसे स्वीकार करना किसी के लिए भी कठिन न होना चाहिए,
क्योंकि विवेक को नैतिक भावना का पर्याय ही मान लिया जाता है।
सौन्दर्य और विवेक का सम्बन्ध ही अधिक कठिनाई उत्पन्न किया करता है।
किन्तु सुन्दर के प्रतिमान और नैतिक के प्रतिमान में क्या सम्बन्ध
है? क्या दोनों एक हैं? क्या समालोचना में एक के विचार में ही दूसरे
का विचार निहित होता है, और एक का स्वीकार स्वत: दूसरे का भी स्वीकार
हो जाता है? या कि दोनों अलग-अलग हैं? और अलग-अलग हैं, तो समालोचना
के मूल्यांकन में क्या दोनों का विचार होना चाहिए, या केवल एक का?
प्रश्न सरल नहीं है। और उत्तर असंदिग्ध या विवादातीत है, यह कहना
धोखा होगा। किन्तु प्रश्न अनिवार्य है, और किसी भी गम्भीर पाठक के
लिए और विशेषकर किसी भी लेखक के लिए, उसका कुछ-न-कुछ उत्तर-भले ही एक
अस्थायी और कामचलाऊ उत्तर-
आवश्यन्दातव्य है। क्योंकि लेखक के सम्मुख यह प्रश्न यदि आता है, तो
यह उसकी सृजन-प्रेरणा का ही प्रश्न बन कर आता है, और बिना इसका उत्तर
दिये (या पाये) उसका रचना में प्रवृत्त होना असम्भव हो जाता है-बल्कि
उसका प्रवृत्त होना स्वयंमेव प्रश्न का उत्तर बन जाता है। और यदि
कृति के मूल में इस प्रश्न का उत्तर निहित है, तो पाठक अथवा अध्येता
के लिए भी उस उत्तर को जानना आवश्यक है, क्योंकि उसे जान कर ही वह
कृति के मूल्यांकन की ओर अग्रसर हो सकता है। लेखक के उत्तर को ज्यों
का त्यों मान लेना उसके लिए अनिवार्य नहीं है, लेकिन उसे जानना
आवश्यक है। किन्तु यहाँ भी केवल सिद्धान्त-चर्चा में न रहकर उदाहरण
लेकर चलना सुविधाजनक होगा।
पुराना आख्यान-साहित्य ले लीजिए-प्रबन्ध-काव्य ले लीजिए, गाथाएँ ले
लीजिए। कथाकार कथा कहता था, घटनाओं का परात्पर घटित होना ही वहाँ
सबसे अधिक महत्त्व रखता था। यह नहीं कि कथाकार में नैतिक बोध नहीं
होता था, या कि वह अपनी नैतिक मान्यताओं को प्रकट नहीं करता था, अपने
स्वीकृत नैतिक मूल्यों का इंगित नहीं देता था। इसके विपरीत वह पहले
से ही कुछ अच्छे और कुछ बुरे पात्र लेकर चलता था-नैतिक मान्यताएँ
बिलकुल स्पष्ट करके; और कभी-कभी अन्त में निष्कर्ष के रूप में किसी
नैतिक मूल्य को साग्रह दोहरा भी देता था। बल्कि कभी यह नैतिक स्थापना
पहले कर दी जाती थी और कथा केवल इसके दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत
की जाती थी। पंचतन्त्र आदि में पग-पग पर नैतिक मूल्यों का आग्रह है :
कहानी मानो उन्हें वहन करने का माध्यम भर है।
अब जरा इधर के आख्यान-साहित्य पर विचार कीजिए। घटना उसमें बिलकुल न
हो ऐसा तो नहीं है। पर उसका घटित कभी-कभी बिलकुल आभ्यन्तर भी रहता
है-स्थूल जगत में कोई घटना घटे बिना भी उसमें संघर्षों के तूफान उठते
और लय हो जाते हैं। आज का लेखक किसी भी घटना में कत्र्ताओं के
उद्देश्यों को देखता है। ‘अमुक हुआ’ उसके लिए पर्याप्त नहीं है;
‘अमुक किया गया’ वह कहता है, और ‘क्यों किया गया’ पर ही उसकी समूची
जिज्ञासा केन्द्रित हो जाती है। कभी वह ‘अमुक किया गया’ की अवस्था तक
भी नहीं जाता; केवल सूचित कर देता है कि ‘अमुक-अमुक कारण क्रियाशील
है’ और यह पाठक पर छोड़ देता है कि वह समझ ले कि परिणामत: ‘क्या किया
जाएगा।’
यह परिवर्तन साधारण या ऊपरी नहीं है, घटना से घटना-हेतु की ओर जाना
साहित्यकार की बौद्धिक प्रवृत्ति की एक बहुत बड़ी क्रान्ति का सूचक
है।
कुछ लोगों की धारणा है कि बुद्धि के बढ़ते वैभव के साथ मानव का नैतिक
ह्रास हुआ है। हम ऐसा नहीं मानते-नहीं मान सकते। हमारी पहली
प्रतिज्ञा ही इस परिणाम को असम्भव बना देती है। क्योंकि हम मानते हैं
कि नीति-ज्ञान, विवेक, स्वयं बुद्धि का वैभव है। निरी आस्था के सहारे
भी अनीति से बचा जा सकता है, अनैतिक कर्म न करने की अवस्था प्राप्त
की जा सकती है, किन्तु नैतिकता के प्रति ऐसा नकारात्मक, अकर्मण्य
दृष्टिकोण आज नैतिक बन्ध्यत्व का ही सूचक माना जाएगा। साहित्य की
उपर्युल्लिखित नई प्रवृत्ति नैतिक शिथिलता या नैतिक मूल्यों के
ह्रास की नहीं, नैतिक बोध की परिपक्वता की सूचक है। ईसा ने जब कहा
था, ‘जज नॉट, लेस्ट यी बी जज्ड’ तब इसलिए नहीं कि वह नैतिक
प्रतिमानों को तिलांजलि दे रहे थे, वरन् इसलिए कि वह आभ्यन्तर के
घटित को उचित महत्त्व दे रहे थे-कोई नैतिक निर्णय बाह्य कर्म के आधार
पर नहीं हो सकता, आभ्यन्तर उद्देश्यों का विचार होना चाहिए, यही उनके
उपदेश का हेतु था। या कम से कम एक हेतु, क्योंकि दूसरा तो यह था ही
कि जो अपराधी है उसे दंड न दो, संवेदना दो-मानवी समवेदना तो सबसे
बड़ा नैतिक मूल्य है ही।
आख्यान-साहित्य यहाँ केवल उदाहरण के लिए लिया गया है। क्योंकि दृष्टि
का जो परिवर्तन (संस्कार) दिखाना हमें अभीष्ट था, वह इसमें सबसे अधिक
आसानी से और स्पष्ट देखा जा सकता है। समूचे साहित्य की यह प्रवृत्ति
रही है कि कर्म के हेतु को पहचानो, निर्णय देने या दंड-व्यवस्था करने
मत दौड़ो। और हेतु को पहचान कर भी रुको मत, आगे बढक़र संवेदना भी दो।
हाँ, संवेदना देने के लिए बहुत बड़ा हृदय चाहिए, वह सबके पास नहीं भी
हो सकता है, इसलिए संवेदना न भी दे पाओ तो कम से कम निर्णय की उतावली
तो न करो!
हमने कहा कि यह समूचे साहित्य की प्रवृत्ति रही है। इस कथन में
अतिव्याप्ति दोष है। उसे मर्यादित करने के लिए कहना चाहिए कि समूचे
नहीं, किन्तु सारे मानववादी साहित्य की यह प्रवृत्ति रही है। क्योंकि
इधर एक ऐसी प्रवृत्ति भी है जो इस हेतु-परीक्षण को अस्वीकार करती है,
मानवी समवेदना के इस व्यापक प्रदान को अपव्यय मानती है। नैतिक मानदंड
उसके पास नहीं है अथवा उसे तर्क से पुष्ट नहीं किया जाता ऐसा तो नहीं
कहा जा सकता; पर उसका नीति-निरूपण ही द्वन्द्वात्मक और अवसरसेवी है।
कह सकते हैं कि वह विवेकाश्रित नहीं, तर्काश्रित है। यह प्रवृत्ति
कर्म-प्रेरणाओं की पड़ताल को प्रवंचना कहती है, क्योंकि वह कर्ता के
कर्तृत्व को, भावना और अनुभूति की प्राथमिकता को अस्वीकार करती है।
जिसे हम आभ्यन्तर कारण कहते हैं उसे वह स्थितिजन्य परिणाम मानती है।
एक प्रकार से वह साहित्य की अब तक की प्रवृत्ति को उलट रही है: जहाँ
अब तक साहित्य मानव को बँधी-बँधाई नैतिक लीकें से उबार कर कत्र्ता का
गौरवपूर्ण पद देने की ओर प्रवृत्त था, वहाँ यह नई प्रवृत्ति फिर से
बँधी-बँधाई लीकों लेकर उसमें मानव को डालने का उपक्रम कर रही है। अब
तक की प्रवृत्ति यह थी कि साहित्य का पात्र एक नैतिक मानचित्र पर
दौडऩे वाला जीवन मात्र न रह कर खुली भूमि पर राह बनाने वाला मानव हो;
नई प्रवृत्ति उसे शतरंज का प्यादा बनाये दे रही है। कदाचित् उतना भी
नहीं; मानव मानो छोटे-बड़े कई आकारों के कंकड़ हैं जिन्हें अपनी मोटी
और बारीक चलनियों में से छान कर वह या तो गिट्टी बनाकर अपनी किसी
इमारत की नींव में दाब देगी, या रोड़ी बना कर अपनी सडक़ पर बिछा
देगी-और कितनी कृतज्ञ होगी रोड़ी इस प्रकार पथ को प्रशस्त करने के
काम में लायी जा कर! किन्तु इस नई नैतिक संकीर्णता की चर्चा का यह
स्थान नहीं है; यहाँ उसकी और पड़ताल प्रासंगिक भी नहीं है।
प्रश्न अभी वहीं का वहीं है; एक उदाहरण से उसे स्पष्ट भले ही किया
गया हो, उसका उत्तर नहीं दिया गया है। कलाकृतियों में, उनके द्वारा,
नैतिक मूल्यों का विस्तार होता है ऐसा हम कह सकते हैं कि समालोचना के
लिए भी नैतिक मूल्यों पर और उनके विकास अथवा विस्तार पर विचार करना
आवश्यक है-अर्थात् उस समालोचना के लिए, जो मूल्यांकन में प्रवृत्त
है। पर प्रश्न यह है कि क्या यह विचार सौन्दर्य-मूल्यों के विचार से
अलग है, उसका समान्तर है, या उसी में निहित है?
कहते हैं कि जो सुन्दर है वह शिवेतर हो ही नहीं सकता। इसे हम मानते
हैं, किन्तु यह ध्यान रखना होगा कि इससे यह ध्वनि होती है कि दोनों
पर्यायवाची और परस्पराश्रित हैं। ऐसा दावा करना कठिन है। जो यह मानते
हैं कि जो सुन्दर है वह शिव भी होता ही है, वे भी कदाचित् अलग से ऐसा
दावा करने में संकोच करेंगे। ऐसा ही होता तो आचार्यों को एक अलग
उद्देश्य के रूप में ‘शिवतेर-क्षय’ चर्चा करना क्यों आवश्यक जान
पड़ता? जो सुन्दर है वह अनैतिक नहीं होगा यह एक बात है, पर उससे
शिवेतर-क्षय की माँग करना एक अतिरिक्त शक्ति या प्रभाव की माँग करना
है। एक प्रकार से यह साहित्य में लक्षित होने वाले संस्कार के
समान्तर समालोचना का संस्कार करना है, क्योंकि जैसे साहित्य में घटित
से आगे बढक़र हम आभ्यन्तर हेतु अथवा प्रेरणा की छान-बीन देखते हैं,
वैसे ही हम समालोचना में भी रूप-विचार से आगे बढक़र कृतिकार के
उद्देश्य और कृति के प्रभाव की भी कसौटी करना चाहते हैं। और जिस
प्रकार आभ्यन्तर हेतु के ज्ञान को हम अपने-आप में एक लक्ष्य नहीं
मानते, समझते हैं कि उसका महत्त्व इसमें है कि वह हमें जीवन के प्रति
नई और गहरी दृष्टि देता है, उसी प्रकार कृति के उद्देश्य और प्रभाव
को पहचानना भी हम अपने-आप में एक लक्ष्य नहीं मानते, समझते हैं कि वह
हमें मानव जगत का एक सम्पन्नतर अंग बनाता है।
विश्लेषण को चरम अवस्था तक ले जाएँ तो मानना होगा कि नैतिक मूल्य
यानी शिवत्व के मूल्य, और सौन्दर्य के मूल्य अलग-अलग हैं और अलग
विचार माँगते हैं। विशुद्ध तर्क के क्षेत्र में यह भी मान लेना होगा
कि ऐसा हो सकता है कि कोई कलाकृति सुन्दर हो और अशिव हो, या कम से कम
शिव न हो। यह मान कर भी पहली बात कैसे मानी जा सकती है? स्पष्ट ही
यहाँ विरोधाभास है। वास्तव में उच्च कोटि का नैतिक बोध और उच्च कोटि
का सौन्दर्य-बोध, कम से कम कृतिकार में प्राय: साथ-साथ चलते हैं।
क्यों? क्योंकि दोनों बोध मूलत: बुद्धि के व्यापार हैं, मानव का
विवेक ही दोनों के मूल्यों का स्रोत है और दोनों के प्रतिमानों या
मानदंडों का आधार। विवेकशील मानव की-विशेषकर उस विवेकशील मानव की,
जिसमें सृजनात्मक शक्ति या प्रतिभा भी है-ग्राहकता दोनों को ही
पहचानती है। बुद्धि, और जिस पर बुद्धि आधारित है वह अनुभव-निरन्तर
विकासशील और संस्कारशील है। निरन्तर सूक्ष्मतर होती हुई संवेदना
एकांगी भी हो सकती है, पर जहाँ सर्जनात्मक शक्ति है वहाँ एकांगिता की
सम्भावना कम है और पुष्ट सौन्दर्य-बोध के साथ पुष्ट नैतिक बोध भी
होता ही है। जिस प्रकार कृतिकार सुन्दर का स्रष्टा होकर असुन्दर के
सायास परित्याग के द्वारा सुन्दर की उपलब्धि नहीं करता, उसी प्रकार
वह नैतिक द्रष्टा होकर सायास अनैतिक के विरोध द्वारा नैतिक को नहीं
पाता; उसकी परिपुष्ट संवेदना सहज भाव से दोनों को पाती है-और देती
है। इसीलिए कला हमें आनन्द भी देती है, हमारा उन्नयन भी करती है। आज
का समालोचक इस बात को नाना वादों के आवरण में छिपा चाहे सकता है, इसे
अमान्य नहीं कर सकता।