संस्कृति और परिस्थिति

Anonymous Essays – अज्ञेय रचना संचयन वैचारिक निबंध

यदि आप आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रगति से तनिक-सा भी परिचय रखते
हैं, तब आपने अनेकों बार पढ़ा या सुना होगा कि हिंदी आश्चर्यजनक
उन्नति कर रही है, कि उसने भारत की अन्य सभी भाषाओं को पछाड़ दिया
है, कि हिंदी साहित्य-कम से कम उसके कुछ अंग-संसार के साहित्य में
अपना विशेष स्थान रखते हैं। जबसे साहित्य की समस्या भाषा-अर्थात
‘राष्ट्रभाषा’-के विवाद के साथ उलझ गयी है, तब से इस ढंग की
गर्वोक्तियाँ विशेष रूप से सुनी जाने लगी हैं। नि:सन्देह ऐसे ‘रोने
दार्शनिक’ भी हैं जो प्रत्येक नई बात में हिंदी का ह्रास ही देखते
हैं-और राष्ट्रभाषा की चर्चा चलने के समय से तो ऐसे समय-असमय ख़तरे की
घंटी बजाने वालों की संख्या अनगिनत हो गयी है-लेकिन इन गर्वोक्तियों
से आप सभी परिचित होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।

क्या आपने कभी इनकी पड़ताल करने का यत्न या विचार किया है? क्या ये
पूर्णतया सच्ची हैं? यदि इनमें आंशिक सत्य है तो कितना, और क्या? यदि
हमारी प्रगति विशेष लीकों में पड़ रही है तो किनमें और कैसे?

इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न मैं नहीं करूँगा। मैं न तो
सस्ते आशावाद से और न चोट पड़ते ही बें-बें करनेवाले निराशावाद से ही
आपको सन्तोष दिलाना चाहता हूँ। इन प्रश्नों का उत्तर प्रत्येक को
अपने ढंग से खोजना चाहिए, मैं केवल उस खोज के प्रति वैज्ञानिक
उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग रखने पर जोर देना चाहता हूँ। और इसीलिए
साहित्य के प्रश्न को साहित्य के या साहित्यालोचन के संकुचित घेरे से
निकालकर मैं उसे एक सांस्कृतिक विभूति के रूप में दिखाना चाहता हूँ।
यह रूप उसे कैसे प्राप्त होता है, यह जानने के लिए आपको समाज के
संगठन की ओर ध्यान देना होगा।

साहित्य-साहित्य की शिक्षा-अन्ततोगत्वा एक स्थानापन्न महत्त्व रखती
है। पुराने सामाजिक संगठन के टूटने से उसकी सजीव संस्कृति और परंपरा
मिट गयी है-हमारे जीवन में से लोकगीत, लोकनृत्य, फूस के छप्पर और
दस्तकारियाँ क्रमश: निकल गयी हैं और निकलती जा रही हैं, और उनके साथ
ही निकलती जा रही है वह चीज़ जिसके ये केवल एक चिह्न मात्र हैं-जीवन
की कला, जीने का एक व्यवस्थित ढंग जिसके अपने रीति-व्यवहार और अपनी
ऋतुचर्या थी-ऐसी ऋतुचर्या, जिसकी बुनियाद जाति के चिर-संचित अनुभव पर
कायम हो। बात केवल इतनी नहीं है कि हमारा जीवन देहाती न रहकर शहरी हो
गया है। जीवन का ढंग ही नहीं बदला, जीवन ही बदला है। अब समाज न
देहाती रहा है न शहरी, अब उसका संगठन ही नष्ट हो गया है। उसे ऐक्य
में बाँधनेवाला कोई सूत्र नहीं है; जो जहाँ सुविधा पाता है वहाँ रहता
है, अपने पड़ोसियों से उसका कोई जीवित सम्बन्ध, धमनियों के प्रवाह का
सम्बन्ध नहीं रहता; सम्बन्ध रहता है भौगोलिक समीपता का, बिजली, पानी,
मोटर-ट्राम की मारफत।

नि:सन्देह पुराने संगठन के अवशेष भारत में अनेक स्थलों पर मिलेंगे,
जहाँ अभी मोटरलारी, सिनेमा और रेडियो नहीं पहुँचे हैं। इन स्थलों में
जीवन अब भी एक कला है। लेकिन ये बहुत देर तक नहीं रहेंगे। यन्त्रयुग
की प्रगति का निर्मम हल पुरानी मिट्टी उपाटता हुआ चला जा रहा है।

यदि आपको इस बात में कुछ अत्युक्ति जान पड़ती हो, तो अपने देखे हुए
किसी मिल इलाके को याद कीजिए। यदि आपने उसे बनते हुए देखा
है-लापरवाही और अवज्ञा से खड़े किए गये उन कुरूप स्तूपों को,
मानवजाति के और आसपास के प्रदेश के प्रति घोर उपेक्षा से मुँह बाये
हुए; यदि आपने कलकत्ते के ‘गार्डन रीच’ या बम्बई के ‘वरली चाल्स’
जैसे दृश्य देखे हैं, तब आप समझ सकेंगे कि यह विनीशक-क्रिया, मानव
जीवन की स्वाभाविकता का यह ध्वंस, समाज-संगठन के ह्रास का ही वाह्य
लक्षण है। इसी क्रिया को इंग्लैंड में देखकर वहाँ का दिव्य कलाकार
डी. एच. लारेंस फूट उठा था-

“The car ploughed uphill through the
long squalid straggle of Tevershall, the blackened brick
dwellings, the black slate roofs glistening their sharp edges, the
mud black with coal-dust, the pavements wet and black. It was as
if dismalness had soaked through and through everything. The utter
negation of the gladness of life, the utter absence of the
instinct for shapely beauty which every bird and beast has, the
utter death of the human intuitive faculty was appalling. The
stacks of soap in the grocer’s shops, the rhubarb and lemons in
the green grocer’s! the awful hats in the milliner’s! all went by
ugly, ugly, ugly, followed by the plaster and gilt horror of the
cinema with its wet picture announcements. ‘A Woman’s Love’, and
the new big Primitive chapel, primitive enough in its stark brick
and big panes of greenish and raspberry glass in the windows…

See also  जैसा राजा वैसी प्रजा

‘England, my Englan!’ But which is my England! The stately homes
of England make good photographs and create the illusion of a
connection with the Elizabethans. The handsome old halls are
there, from the days of good Queen Anne and Tom Jones. But smuts
fall and blacken the drab stucco, that has long ceased to be
golden. And one by one, like the stately homes, they are
abandoned. Now they are being pulled down. As for the cottages of
England-there they are-great plasterings of brick dwellings on the
hopeless countryside…
This is history. One England blots out another. The mines had made
the halls wealthy, now they were blotting them out, as they had
already blotted out the cottages. The industrial England blots out
the agricultural England. And the continuity is not organic but
mechanical.”

इस स्थापना से कोई निस्तार नहीं है कि पुरानी संस्कृति मर रही है, और
संस्कृति का प्रश्न हमारे जीवन-मरण का प्रश्न है। यह दुहराने की
आवश्यकता नहीं कि पुरानी व्यवस्था के टूटने का कारण मशीन है। लेकिन
मशीन-युग का जीवन ठीक क्या परिवर्तन लाता है यह समझकर ही संस्कृति पर
उसका प्रभाव समझ में आएगा। इसके लिए क्षण-भर आधुनिक मिल मजदूर और
पुराने दस्तकार की तुलना कीजिए। आज के मजदूर के लिए यह सम्भव है कि
तीस या चालीस या पचास साल तक एक अकेली क्रिया को दुहराने मात्र के
सहारे यह उतने समय तक अपने परिवार का पेट पाल सके! मसलन नित्यप्रति
आठ घंटे तक सेफ्टी उस्तरे के ब्लेड को मोम में डुबोकर पैक करने के
लिए रखते जाना-बिलकुल सम्भव है कि पाँच-छ: प्राणियों के कुनबे को
पालनेवाला व्यक्ति आयु भर यही एक क्रिया करता रहा हो। इसका मिलान
कीजिए पुराने लुहार से-अपने वर्ग का कितना अनुभव-संचित ज्ञान, कितनी
लम्बी परंपरा उसकी मेहनत को अनुप्राणित करती थी! यह सब अब नहीं रहा,
आज के श्रमिक के लिए जीवन का अर्थ है कि एक निरर्थक यान्त्रिक क्रिया
की बुद्धिहीन अनवरत आवृत्ति। पुराना दस्ताकर निरक्षर होकर भी शिक्षित
और संस्कृत भी होता था; आज का मजदूर जासूसी किस्से और सिनेमा पत्र
पढक़र भी घोर अशिक्षित है। उसकी जीवन की शिक्षा एक अकेली अर्थहीन
यान्त्रिक क्रिया तक सीमित है।

अब आप समझ सकते हैं कि कैसे यन्त्रयुग जीव में वह परिवर्तन लाता है
जो वास्तव में जीव का प्रतिरोध है। हम लोगों में से जो यन्त्रयुग की
बुराइयों पर ध्यान देते हैं वे प्राय: उसे एक आर्थिक संकट के रूप में
देखते हैं-बेकारी की समस्या के रूप में। लेकिन प्रश्न आर्थिक से बढक़र
सांस्कृतिक है। मशीन से केवल रोजगार नहीं मारा जाता, मशीन से मानव का
एक अंग मर जाता है, उसकी संस्कृति नष्ट होती है और उसका स्थान
लेनेवाली कोई चीज़ नहीं मिलती। मशीन-युग के मानव का जीवन दो अवस्थाओं
में बँट जाता है एक जिसमें मेहनत है पर जीवन स्थगित है; दूसरा जिसमें
जीवन को पाने की उत्कट प्यास है। वास्तविक अवकाश की शान्ति की
अवस्थाएँ दोनों ही नहीं हैं; फिर भी ऐसे विभाजन से वह समस्या पैदा हो
गयी है। जिसे the problem of leisure कहा जाता है। यह समस्या
यन्त्रयुग की देन है।

यह नहीं है कि पुराने जमाने में अवकाश नहीं होता था। निस्सन्देह तब
भी किसान लोग ‘सुस्ताने’ बैठते थे। दो एक हाथ चिलम या ताड़ी पीने
में, और गपशप या गाली-गलौज करने में समय बिताते थे लेकिन यह सुस्ताना
जैसे जीवन का एक उपांग, (by-product) था, उसका ध्येय और अन्त नहीं।
उनके लिए ‘फ़ुरसत’ का वक्त केवल काम के लिए ताजा होने का साधन था
क्योंकि उस समय उनका रोजगार ऐसा था कि यद्यपि उससे उनकी तर्क या
कल्पना-शक्तिको प्रोत्साहन नहीं मिलता था, तथापि उसमें हाथ की सफाई
और विशेष ज्ञान का प्रयोग करने के लिए काफ़ी गुंजाइश होती थी और उससे
तोष प्राप्त होता था। उसके बाद फुर्सत नहीं, विश्राम चाहते थे।
‘फ़ुरसत’ का मूल्य कम था, इसका एक प्रमाण यह भी है कि वे प्राय: दिन
छिपते ही सो जाते थे। विश्राम के बाद अपने काम के प्रति उनमें स्वागत
भाव हो सकता था। किन्तु आप परिस्थिति इसके सर्वथा प्रतिकूल है। आज के
श्रमिक के लिए रोज़गार एक पदार्थ है जिसके दाम लगते हैं, बस। उसमें
उसकी किसी तरह की भी रुचि नहीं है, उसके लिए वही साधन है। (पैसा पाने
का) और ध्येय है फ़ुरसत। इस प्रकार जीविका का फल, उसका अर्थ, उतनी देर
के लिए स्थगित कर दिया जाता है जितनी देर वह जीविका कमाई जाती
है-जीना और जीविका कमाना साथ-साथ नहीं चलते, परस्पर विरोधी होकर चलते
हैं। काम का समय पूरा होने पर घंटा बजने पर ही उसे अपने को मानव
समझने का अधिकार मिलता है और वह जीने का यत्न कर सकता है। उसे
‘फ़ुरसत’ मिलती है; वह अपने को खाली पाता है और एकाएक किसी वस्तु के
लिए तड़प उठता है जिससे वह खलिश मिट जाए, वह अपने को ‘तृप्त’ मान
सके, स्थगित जीवन से होने वाली क्षति पूर सके।

See also  No. 150 [from The Spectator] by Eustace Budgell

यह स्पष्ट है कि ऐसे समय का उपयोग ही किसी व्यक्ति की संस्कृति की
कसौटी है। हमारा आजकल का श्रमजीवी इस फुर्सत के समय क्या करेगा? ऊपरी
दृष्टि से देखा जाए, तो उसके पास अनेकों उपाय हैं। लेकिन जिस मशीन ने
फ़ुरसत पैदा की है, उसी ने उसके उपयोग भी विशेष लीकों में डाल दिये
हैं। इस क्रिया की भी हम कभी जाँच करेंगे।

ऊपर कहा गया कि आधुनिक जीवन दो क्रियाओं में बँट जाता है-श्रम, जो
अन्तत: यान्त्रिक और तोष-शून्य है; तथा अवकाश जो मूलत: श्रम की
अवस्था की क्षतिपूर्ति है, स्थगित जीवन की थकान से भागना, या कम से
कम मनोरंजन है। अत: आधुनिक जीवन में संस्कृति के, और उसके प्रमुख
अंग, बल्कि केन्द्र साहित्य के, लिए कोई स्थान है तो दूसरी अवस्था
में ही है। आज साहित्य का यही मुख्य उपयोग है-और मेरी समझ में यही
उसके लिए सबसे बड़ा खतरा।

फ़ुरसत का उपयोग साधारणतया मनोरंजन के लिए होता है-मनोरंजन भी एक
विशेष प्रकार का-जो अपनी परिस्थिति को भूलने में सहायक हो-अर्थात् एक
तरह का नशा हो। देखिए, इस बारे में आधुनिकता का एक पुजारी
‘मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ’ क्या कहता है-बिना अपने कथन का भीषण
अभिप्राय समझे!-

‘‘लोग, विशेषतया स्त्रियाँ, गल्पसाहित्य में प्रकारान्तर से उन
मानवीय अनुभूतियों की तृप्ति खोजती हैं, जो आज के उलझे हुए और
संकीर्ण जीवन में पूरी नहीं हो पातीं। अपने तंग, भीड़-भरे और
हड़बड़ाए जीवन में अधिक गहरी अनुभूति के स्पन्दन और खिंचाव को
प्राप्त करने का समय और अवसर न पाकर वे अपनी स्वाभाविक वासना की
तृप्ति के लिए गल्प साहित्य की ओर झुकते हैं… सभ्यता से बँधे हुए
लोग वासनाओं की तृप्ति के लिए गल्प साहित्य की ओर झुकते हैं…इसीलिए
लोग सुखान्त कहानी पसन्द करते हैं। जीवन में अपने परिश्रम में सफलता
का सन्तोष न पाकर, हताश लोग गल्पसाहित्य में सान्त्वना खोजते हैं;
उपन्यास के नायक-नायिका की परिस्थिति में अपने को डालकर वे एक
अल्पकालिक और भ्रामक तृप्ति पाते हैं।’’

अर्थात् वे जीवन की कमी उसकी छाया से पूरी करते हैं। लेकिन जिन लोगों
के जीवन में अनुभूति की गहराई और विशालता और सूक्ष्मता के लिए स्थान
नहीं है, उनका यहाँ छाया-जीवन भी कच्चा और छिछला ही हो सकता है। जिस
व्यक्ति का काम उसके व्यक्तित्व को पुष्ट नहीं करता, वह छाया-जीवन से
जो तृप्ति प्राप्त करेगा, उसका उसके जीवन की यथार्थता से कोई सम्बन्ध
नहीं होगा-क्योंकि यथार्थता से तृप्ति न मिल सकने के कारण ही तो वह
उससे भागता है। और फिर, ऐसा व्यक्ति वह परिश्रम करने को भी तैयार
नहीं होगा जो मनोरंजन के लिए ज़रूरी है-अत: उसकी क्षतिपूर्ति नशे का
रूप ले सकती है।

एक तरह की ‘क्षतिपूर्ति’ मनोरंजन कदापि नहीं है, क्योंकि वह पुष्ट और
संजीवित नहीं करती, बल्कि उसे यथार्थता से छूट भागने का आदी बनाकर और
भी कमजोर और जीवन के लिए अयोग्य बनाती है। इस प्रकार व्यक्ति एक
अँधेरे चक्कर में पड़ जाता है जिससे उसका निस्तान नहीं।

आधुनिक पत्र-पत्रिकाओं के, सिनेमा-थियेटरों के, अखबारों, रेडियो और
ग्रामोफोन के बारे में भी यही बात सच है। अप्राकृतिक मनोरंजन-अर्थात
जीवन से पलायन-के ये सब साधन मिलकर जीवन को सस्ता बना रहे हैं-उसका
अर्थ और महत्त्व नष्ट कर रहे हैं। इनका प्रयत्न यही है कि ‘मनोरंजन’
के लिए जरा भी प्रयास-मन को एकाग्र करने का भी प्रयास-न करना पड़े।
आधुनिकता की प्रगति यह है कि सस्ती, ऊपरी और तात्कालिक (‘सामयिक’)
रुचि की बातों को छोडक़र अन्य सभी को निरुत्साहित किया जाए, सस्ती और
ऊपरी मानसिक प्रवृत्तियों के लिए खाद्य दिया जाए। आपने लक्ष्य किया
होगा कि इधर हिंदी के एकाधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने जानते
बूझते हुए अपना ‘स्टैंडर्ड’ नीचा किया है, ताकि उसका आकर्षण अधिक
सार्वजनिक हो सके। यह परिवर्तन आकस्मिक भी हो सकता था, लेकिन मैं
जानता हूँ कि ऐसा चेष्टापूर्वक किया गया है, क्योंकि ‘‘आधुनिक पत्र
का क्षेत्र व्यापक होना चाहिए-आज का युग masses का युग है और उसमें
mass appeal चाहिए।’’ ऐसी mass appeal के लिए पत्रों में जो सस्तापन
लाया जाता है वह केवल शब्दों का होता है भाषा का नहीं। उसके लिए
हमारी अनुभूति और मानसिक प्रगति के धातु में खोट मिलाया जाता है,
हमारा जीवन सस्ता और हल्का किया जाता है!

See also  सोच

शायद इसमें आपको अत्युक्ति जान पड़े-या यह स्पष्ट न हो। एक उदहारण ले
लीजिए। एक जमाना था, जब हिंदी-भाषी लोगों के लिए ‘मुहब्बत’ शब्द का
अर्थ कुछ ऊँचा नहीं था, उसमें किसी घटिया भाव की ध्वनि थी। लेकिन
प्रेम शब्द में ऐसी कोई ध्वनि नहीं थी उसका धातु खरा था। पर जबसे
सिनेमा की कृपा से ‘प्रेम नगर में प्रेम का घर, प्रेम ही का आँगन,
प्रेम की छत और प्रेम के द्वार, प्रेम की नदी और प्रेम के कगार’ बन
गये, तब से क्या अब किसी आत्मभिमानी व्यक्ति के लिए किसी दिव्य
अभिप्राय से यह कहना सम्भव रहा है कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूँ?’
मेरा अनुमान है कि आप किसी को सच्चे दिल से भी यह कहते सुनेंगे तो
मुस्करा देंगे। क्योंकि यह सिक्का खोटा हो गया है, बाजार में
दुकान-दुकान पर तिरस्कृत होता है, और उसका चल जाना एक झूठ का चल जाना
है। जाली प्रामिसरी नोट की तरह उसके साथ एक प्रामिस तो है, पर उसकी
पूर्ति नहीं, प्रामिस को सच्चा करनेवाला गोल्ड रिजर्व नहीं रहा है।

और केवल शब्द ही सस्ता नहीं हुआ है, उसका प्रायोग करनेवालों का
मानसिक जीवन भी उतना ही सस्ता हुआ है; क्योंकि प्रेम का नगर और घर और
मन्दिर और नदी तो है, लेकिन प्राण स्रोत सूख गया है, और यदि वह कहीं
फूट निकलना भी चाहे, तो कम से कम इस मार्ग से नहीं बह सकता-वह गहरा
अर्थ इस शब्द से सदा के लिए अलग हो गया है।
मैं प्राय: इस समस्या की परिभाषा तक पहुँच गया हूँ जो मैं आपके सामने
उपस्थित करना चाहता हूँ, जो मेरी समझ में हमारे आधुनिक जीवन की मौलिक
समस्या है और जिसका हल किये बिना हमारा भविष्य अँधेरा है।

किन्तु उस समस्या को उपस्थित करने से पहले मैं दो एक बातें और स्पष्ट
कर देना चाहता हूँ।

मैंने ऊपर भाषा के सस्ते किये जाने और पत्रों का स्टैंडर्ड गिराये
जाने का उल्लेख किया है। इससे एक गलतफहमी भी हो सकती है। मेरा यह
अभिप्राय नहीं है कि यह उतार अकारण पैदा कर दिया जाता है। नि:सन्देह
परिस्थिति की मजबूरी वहाँ भी है, और विकट रूप में है। इस मजबूरी की
पड़ताल भी आरम्भ से की जाए, क्योंकि इससे भी संस्कृति की समस्या पर
काफ़ी प्रकाश पड़ता है।

मशीन युग बेहद उत्पत्ति का युग है। और बेहद उत्पत्ति तभी लाभप्रद हो
सकती है जब उसकी मशीनरी से पूरा काम लिया जाए और सारी उपज तत्काल
बाजार में खप जाए। मुनाफे के सिद्धान्त पर आश्रित आधुनिक व्यवस्था
में बेहद उत्पत्ति का अर्थ होता है कारखानों-बल्कि समूचे वर्गों और
नगरों-को व्यक्तिगत लाभ के लिए संगठित करना और प्रतियोगिता में
चलाना। उसका उद्देश्य माँग की पूर्ति करना नहीं, उपज के लिए माँग
ढूँढऩा या पैदा करना हो जाता है। इसीलिए किसी ने कहा है :

“The material prosperity of modern civilization depends upon
inducing people to buy what they do not want and to want what they
should not buy.”

इस परिस्थिति का परिणाम यह है कि आधुनिक जीवन विज्ञापन की नींव पर
खड़ा है-बिना विज्ञापन के आधुनिक सभ्यता चल नहीं सकती। आधुनिक
विज्ञापनबाजी की उन्नति का यही कारण है। एक व्यक्ति ने तो कहा है कि
आधुनिक युग में किसी कला ने उन्नति की है तो ‘विज्ञापन कला’ ने।
पत्र-पत्रिकाएँ इस विज्ञापन का साधन हैं। शायद उनकी उन्नति का भी यही
कारण है। क्योंकि आधुनिक पत्र साहित्य का मुख्यांश विज्ञापनोंपर जीता
है। कई ऐसे भी पत्र हैं जिनकी लागत उनके चन्दे के मूल्य से कहीं
अधिक-कभी-कभी दुगुनी तक-होती है। यह कमी विज्ञापन की आमदनी से पूरी
होती है। अत: स्पष्ट है कि जहाँ एक और विज्ञापन प्राप्त करने के लिए
बड़ी ग्राहक-संख्या की जरूरत होती है, वहाँ दूसरी ओर बड़ी
ग्राहक-संख्या के साथ-साथ विज्ञापन का भी महत्त्व अधिक हो जाता है।
कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि पत्र के किसी अंश का कोई मोल है तो
विज्ञापन के पन्नों का, क्योंकि प्रकाशन और वितरण का खर्च इतना बढ़
गया है कि चन्दे से कभी पूरा नहीं हो सकता। आपने नहीं सुना होगा, एक
नए अमेरिकन पत्र को एक वर्ष में पाँच लाख डालर का घाटा इसलिए हुआ था
कि उसने विज्ञापन दर निश्चित करते समय ग्राहक-संख्या का जो अन्दाज
लगाया था, ग्राहक-संख्या उससे लगभग दुगुनी हो गयी और फलत: बिकनेवाली
प्रत्येक प्रति पर उसे घाटा उठाना पड़ा।

See also  खलीफा हारूँ रशीद और बाबा अब्दुल्ला-56

इस परिस्थिति का संपादक के लिए क्या परिणाम होता है? अगर वह पत्र का
मालिक भी है, तब तो स्पष्ट है कि उसे एक विराट व्यापारिक उद्योग के
अंग के रूप में प्रतियोगिता में पडऩा पड़ेगा; लेकिन अगर वह केवल
वैतानिक कर्मचारी है, तो भी क्या वह उस प्रतियोगिता से मुक्त है? जब
तक प्रकाशन एक व्यवसाय है, तब तक उसे मुनाफा देना होगा; अत: संपादक
को चाहे कितनी भी स्वतंत्रता दी जाए, एक बात की स्वतंत्रता उसे
नहीं दी जाएगी। पत्र की ग्राहक-संख्या घटने देने की स्वतंत्रता।
पत्र का मालिक सदिच्छा रहने पर भी यह स्वतंत्रता नहीं दे सकता, यह
मैं अपने छोटे-से अनुभव से भी जानता हूँ। इस प्रकार संपादक का काम
जनता को शिक्षित करना और प्रेरणा देना नहीं रह जाता, बल्कि उसे वह
देना जो वह माँगती है, और वह भी अन्य प्रतियोगियों की अपेक्षा कुछ
अधिक चटपटे और आकर्षक रूप में। और यह तो हम पहले ही देख चुके कि,
जनता क्या माँगती है, यह निर्णय करने का संपादक तो क्या, वह स्वयं भी
बेचारी स्वतन्त्र नहीं है, वह निर्णय मशीन युग द्वारा उत्पन्न हुई
परिस्थिति ही उसके लिए कर देती है। तब इस विराट नियति-चक्र की भीषणता
का कुछ अनुमान हम कर सकते हैं…

आधुनिक युग मशीन युग है। मशीन के विस्तार से प्राचीन समाज-व्यवस्था
और संस्कृति नष्ट हो रही है, और फ़ुरसत नाम की एक नई वस्तु पैदा हो
रही है। फ़ुरसत का समय बिताने के लिए सामग्री चाहिए, लेकिन वह सामग्री
एक विशेष प्रकार की ही हो सकती है, क्योंकि उसी का रस लेने की
सामथ्र्य आधुनिक मानव में बचती है। इसका परिणाम है कि पुरानी
संस्कृति के मरने के साथ नई के मान नहीं बन रहे, हमारा मन और आत्मा
संकुचित हो रहे हैं और हम यथार्थता का सामना करने के अयोग्य बनते
हैं। दूसरी हो, मशीन युग के साथ जो mass production आया है, उसके लिए
विज्ञापनबाजी आवश्यक है। विज्ञापनबाजी स्वयं मशीन युग की विशेषताओं
को उग्रतर बनाती है, और साहित्य को सस्ता, घटिया, और एकरस बनाने का
कारण बनती है।

संस्कृति का मूल आधार भाषा है, और भाषा का चरम उत्कर्ष साहित्य में
प्रकट होता है। अत: साहित्य का पतन संस्कृति का और अन्तत: जीवन का
पतन है-मशीन युग हमारे जीवन को सस्ता, घटिया और अर्थहीन बना रहा है।

क्या हमारे लिए कोई उपाय है, कोई आशा है? क्या साहित्य का नष्ट होता
हुआ चमत्कार फिर से जाग्रत हो सकेगा? कोई महान प्रतिभाशाली व्यक्ति
तो अपने लिए मार्ग निकाल ही सकेगा, और प्रतिभा में क्रान्ति करने की
शक्ति होती है, लेकिन साहित्य केवल प्रतिभा के सहारे नहीं जी सकता,
उसका स्टैंडर्ड ऊँचा बनाये रखने के लिए बहुत-से अच्छे साहित्य-सेवी
भी चाहिए और विदग्ध रुचि के पाठकों का समुदाय भी चाहिए।

तो प्रश्न को इस रूप में देखना चाहिए-’क्या आज के बड़े और बिखरे हुए
और यन्त्रबद्ध वर्गों में भी उसी ढंग की सजीव और dynamic संस्कृति
कायम रखी जा सकती है जैसी पुराने वर्गों में, या वर्गों के छोटे-छोटे
मंडलों में, बनी रहती थी? यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है, तब
साहित्य का भविष्य अँधेरा है, क्योंकि जनता-जनार्दन को जो नहीं चाहिए
वह नहीं रहेगा। यदि उत्तर अनुकूल है, तभी कुछ आशा हो सकती है, लेकिन
तब प्रश्न उठता है, कैसे?

इस प्रश्न का कोई बना-बनाया उत्तर नहीं है, हल हमें तैयार करना होगा
और उसका चित्र अभी बहुत धुँधला ही दीखता है। यह तो प्राय: सिद्ध हो
गया है कि दैन्य और बेकारी और चिन्ता से मुक्ति मिलने से ही संस्कृति
और सुरुचि अपने आप नहीं प्रकट हो जाते। अत: संसार की आर्थिक अवस्था
सुधरने और जीविका का स्टैंडर्ड ऊँचा होने भर से एक विश्व-संस्कृति या
एक राष्ट्रीय संस्कृति भी स्वयं पैदा नहीं हो जाएगी। यह झूठी आशा
इसलिए और भी असार हो जाती है कि आज भी ऐसे अनेकों कर्कश किन्तु
बलिष्ट स्वर हैं जो चिल्ला रहे हैं कि आर्थिक अवस्था का सुधार और
सामाजिक वैषम्य का अन्त ही एक मात्र ध्येय है, साहित्य और कला भाड़
में जाएँ-या रहें भी तो राजनैतिक उद्देश्यों की अनुचर होकर!

See also  Come Back by Edgar Wilson Nye

कुछ लोगों का यह भी विचार है कि किसी तरह की क्रान्ति के पहले ह्रास
का निकृष्टतम तक छूना होगा, कि साहित्य के महान आदर्श पीढिय़ों की
उपेक्षा के नीचे दबकर ही पुन: अंकुरित होंगे और सौन्दर्य के
दुर्भिक्ष से आक्रान्त जगत को नए प्राण देंगे। हो सकता है कि ऐसा
समय आने तक, साहित्यकारों और साहित्य-शिक्षकों का एक संगठित समुदाय
संसार को पुन: शिक्षित बना दे-इतिहास में ऐसे उदाहरण तो हैं कि एक
भौगोलिक क्षेत्र एकाएक पुन: शिक्षित बन गया हो-सांस्कृतिक पुनर्जीवन
असम्भव तो नहीं है। लेकिन क्या यह डर बना हुआ नहीं है कि संसार की
वर्तमान प्रगति को देखते हुए ऐसा भी सम्भव है कि साहित्य को वह मौका
न मिले-वह घुटकर मर जाए? संसार भर में जिन लोगों को स्वतन्त्र
सौन्दर्य से प्रेम है, उनके हृदयों में यही डर बसा हुआ है-फिर उनके
राजनैतिक विचार और दृष्टिकोण कितने ही भिन्न क्यों न हों। साहित्य की
कला, जो गरीबी से कभी बहुत दूर नहीं रही थी, कभी गर्वीली और मुक्त
थी; लेकिन आज हम देखते हैं कि वह बन्दिनी है और व्यभिचार के लिए
मजबूर है, जबकि विज्ञापनबाजों की चुनी हुई एक नटनी, ‘मिस लिटरेचर’
उसका स्वाँग भर रही है।

तब त्राण कहाँ से होगा? हमें समझ लेना चाहिए कि हमारा उद्धार मशीन से
नहीं होगा, प्रचार-विज्ञापन से नहीं होगा, लेक्चर और विवाद और कवि
सम्मेलनों से नहीं होगा। अगर उद्धार का उपाय कोई है, तो वह संस्कृति
की रक्षा और निर्माण की चिर जागरूक चेष्टा, और उस चेष्टा की आवश्यकता
में अखंड विश्वास, का ही मार्ग है। साहित्य का, कला का, चमत्कार मर
रहा है, मरा अभी नहीं है, अगर उस चमत्कार को पैदा करनेवाले पतन और
निराशा से बच सकते हैं, और उससे मुकाबले की शक्ति उत्पन्न कर सकते
हैं, तो अभी परित्राण सम्भव है। और इस शक्ति को उत्पन्न करने का
एकमात्र मार्ग है शिक्षा-शिक्षा जो निरी साक्षरता नहीं, निरी जानकारी
नहीं, जो व्यक्ति की प्रसुप्त मानसिक शक्तियों का स्फुरण है। यदि यह
कथन बहुत अस्पष्ट जान पड़े, तो समझिए कि जरूरत है रुचि-संस्कार की,
परख करने की, ट्रेनिंग की। बिना गहरी और विस्तृत अनुभूति के संस्कृति
नहीं है। महान ट्रेजेडी के दिव्य और शोधक प्रभाव के आस्वादन के लिए,
वीर-काव्य की गरुड़ उड़ान की चपेट सहने के लिए, लय और सौन्दर्य में
डूबने के लिए, अपने भीतर नीर-क्षीर-विवेचन की प्रतिभा पैदा करने के
लिए, मानसिक शिक्षण नितान्त आवश्यक बल्कि अनिवार्य है। इसके लिए अथक
परिश्रम, विचार और एकाग्रता की जरूरत है।

यदि शिक्षण आधुनिक जगत् के प्रति अपना दायित्व पूरा करना चाहता है,
तो उसे यह दुहरी जागरूकता पैदा करनी होगी-एक तो ऊपर वर्णित
सांस्कृतिक विकास की क्रियाओं के प्रति, और दूसरे तात्कालिक भौगोलिक
और मानसिक परिस्थिति के प्रति, और हमारी रुचियों, आदतों, विचारधाराओं
और जीवन-प्रणालियों पर उस परिस्थिति के असर के प्रति। स्वस्थ
संस्कृति में हम नागरिक को स्वतन्त्र छोडक़र आशा कर सकते हैं कि उसकी
परिस्थिति से ही उसकी संस्कृति उत्पन्न और नियमित होगी; किन्तु आज
यदि हम जीवन के गौरव की रक्षा करना चाहते हैं तो हमें परखने और
मुकाबला करने की शक्ति को संगठित करना होगा, हमें एक आलोचक राष्ट्र
का निर्माण करना होगा।

यह अतिरिक्त जागरूकता ही बचने का एकमात्र उपाय है। ऐसे ही जागरूक
व्यक्तियों के द्वारा वह अलौकिक स्वास्थ्य-चेष्टा, वह
प्रचेतनजीवनी-शक्ति
Instinct of self preservstion, कार्य कर सकेगा जो हमारी resistance
की बुनियाद है।

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